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उलझन / परवीन शाकिर

76 bytes added, 03:25, 14 जून 2010
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|रचनाकार=परवीन शाकिर
|संग्रह=ख़ुशबू / परवीन शाकिर
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<poem>
रात भी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है
 
और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है
 
सोच रही हूं
 
उनको थामूं
 
ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहख़ानों में उतरूं
 
या अपने कमरे में ठहरूं
 
चांद मेरी खिड़की पर दस्तक देता है
</poem>
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