"कुरूप / विजय कुमार पंत" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय कुमार पंत }} {{KKCatKavita}} <poem> उस दिन उस पल तुम्हार…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
20:24, 14 जून 2010 के समय का अवतरण
उस दिन उस पल
तुम्हारे रूप में
घुला हुआ था
अतुलित प्यार , बेशुमार
मैं खो बैठी थी
सुध -बुध
और गयी थी
सर्वस्व हार
आज मैं समझ पाती
हूँ ,
कुरूप चेहरे
नहीं होते
दाग कभी दर्द
नहीं देते
बस एक अनुगूँज
बन जाते हैं
अक्सर सुंदर दिखनेवाले
कई चेहरे
मेरी आँखों में
क्रूर और विभस्त
नज़र आते हैं
क्योंकि अब मेरा मन
सुकुची सिमटी सी
तरुणाई के वश में
नहीं आता है
किसी की मुस्कुराहटों में
दबा सत्य
सामने छलक जाता है
और ये सत्य भी
कि मैंने
चहरे को
उजाला माना था
उसके पीछे का अंधकार नहीं जाना था
आज कह सकती हूँ
तुम तन को झुलसाती
गर्मियों की धूप हो
सुंदर हाड़-मांस की कृति
भले ही
पर सबसे कुरूप हो....