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"युग का जुआ / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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तो न डर,
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मत देख दाएँ
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न अपनी आँख कर नीचे;
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अगर कुछ देखना है
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देख अपने वे
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इसको तमककर तक,
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लेकिन ठहर,
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यह बहुत लंबा,
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बहुत मेहनत औ' मशक्‍़क़त
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माँगनेवाला सफ़र है।
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तै तुझे करना अगर है
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तो तुझे
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ज़ोर एड़ी और चोटी का बराबर,
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औ' बढ़ाना
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क़दम, दम से साध सीना,
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और करना एक
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लोहू से पसीना।
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मौन भी रहना पड़ेगा;
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प्राण का बल
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क्षीण होता;
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शब्‍द केवल झाग बन
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घुटता रहेगा बंद मुख में।
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कहाँ पहचानती हैं
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फूल-कलियों की सुरभि को
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भला, कब देख पातीं
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आ तेरे गले में
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एक घंटी बाँध दूँ मैं,
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जो परिश्रम
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के मधुरतम
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कंठ का संगीत बनाकर
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तेरा निरंतर,
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तेरे कठिन संघर्ष की
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बनकर कहानी
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गूँजती जाए
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पहाड़ी छातियों में।
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अलविदा,
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युग के युवा,
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अपने गले में डाल तू
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युग का जुआ;
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इसको समझ जयमाल तू;
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कवि की दुआ!

02:28, 16 जून 2010 का अवतरण


युग के युवा,

मत देख दाएँ,

और बाएँ, और पीछे,

झाँक मत बग़लें,

न अपनी आँख कर नीचे;

अगर कुछ देखना है,

देख अपने वे

वृषम कंधे

जिन्‍हें देता निमंत्रण

सामने तेरे पड़ा

युग का जुआ,

युग के युवा!तुझको अगर कुछ देखना है,

देख दुर्गम और गहरी

घाटियाँ

जिनमें करड़ों संकटकों के

बीच में फँसता, निकलता

यह शकट

बढ़ता हुआ

पहुँचा यहाँ है।


दोपहर की धूप में

कुछ चमचमाता-सा

दिखाई दे रहा है

घाटियों में।

यह नहीं जल,

यह नहीं हिम-खंड शीतल,

यह नहीं है संगमरमर,

यह न चाँदी, यह न सोना,

यह न कोई बेशक़ीमत धातु निर्मल।


देख इनक‍ी ओर,

माथे को झुका,

यह कीर्ति उज्‍ज्‍वल

पूज्‍य तेरे पूर्वजों की

अस्थियाँ हैं।

आज भी उनके

पराक्रमपूर्ण कंधों का

महाभारत

लिखा युग के जुए पर।

आज भी ये अस्थियाँ

मुर्दा नहीं हैं;

बोलती हैं :

"जो शकट हम

घाटियों से

ठेलकर लाए यहाँ तक,

अब हमारे वंशजों की

आन

उसको खींच ऊपर को चढ़ाएँ

चोटियों तक।"


गूँजती तेरी शिराओं में

गिरा गंभीर यदि यह,

प्रतिध्‍वनित होता अगर है

नाद नर इन अस्थियों का

आज तेरी हड्डियों में,

तो न डर,

युग के युवा,

मत देख दाएँ

और बाएँ और पीछे,

झाँक मत बग़लें,

न अपनी आँख कर नीचे;

अगर कुछ देखना है

देख अपने वे

वृषभ कंधे

जिन्‍हें देता चुनौती

सामने तेरे पड़ा

युग का जुआ।

इसको तमककर तक,

हुमककर ले उठा,

युग के युवा!


लेकिन ठहर,

यह बहुत लंबा,

बहुत मेहनत औ' मशक्‍़क़त

माँगनेवाला सफ़र है।

तै तुझे करना अगर है

तो तुझे

होगा लगाना

ज़ोर एड़ी और चोटी का बराबर,

औ' बढ़ाना

क़दम, दम से साध सीना,

और करना एक

लोहू से पसीना।

मौन भी रहना पड़ेगा;

बोलने से

प्राण का बल

क्षीण होता;

शब्‍द केवल झाग बन

घुटता रहेगा बंद मुख में।

फूलती साँसें

कहाँ पहचानती हैं

फूल-कलियों की सुरभि को

लक्ष्‍य के ऊपर

जड़ी आँखें

भला, कब देख पातीं

साज धरती का,

सजीलापन गगन का।


वत्‍स,

आ तेरे गले में

एक घंटी बाँध दूँ मैं,

जो परिश्रम

के मधुरतम

कंठ का संगीत बनाकर

प्राण-मन पुलकित करे

तेरा निरंतर,

और जिसकी

क्‍लांत औ' एकांत ध्‍वनि

तेरे कठिन संघर्ष की

बनकर कहानी

गूँजती जाए

पहाड़ी छातियों में।

अलविदा,

युग के युवा,

अपने गले में डाल तू

युग का जुआ;

इसको समझ जयमाल तू;

कवि की दुआ!