भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उसी तरह से हर इक ज़ख़्म ख़ुशनुमा देखे / परवीन शाकिर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=परवीन शाकिर
 
|रचनाकार=परवीन शाकिर
|संग्रह=
+
|संग्रह=रहमतों की बारिश / परवीन शाकिर;खुली आँखों में सपना / परवीन शाकिर
 
}}
 
}}
{{KKCatKavita}}
+
{{KKCatGhazal‎}}
{{KKCatGhazal}}
+
 
<poem>
 
<poem>
 
उसी तरह से हर इक ज़ख़्म खुशनुमा देखे
 
उसी तरह से हर इक ज़ख़्म खुशनुमा देखे
 
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
 
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
  
गुज़र गये हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब में
+
गुज़र गए हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब<ref>रातों से दोस्ती</ref> में
इक उम्र हो गयी चेहरा वो चांद-सा देखे
+
इक उम्र हो गई चेहरा वो चाँद-सा देखे
  
मेरे सुकूत से जिसको गिले रहे क्या-क्या
+
मेरे सुकूत<ref>चुप्पी</ref> से जिसको गिले रहे क्या-क्या
 
बिछड़ते वक़्त उन आंखों का बोलना देखे
 
बिछड़ते वक़्त उन आंखों का बोलना देखे
  
पंक्ति 19: पंक्ति 18:
 
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
 
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
  
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आंखों में
+
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आँखों में
 
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
 
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
  
उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाकत जो
+
उसी से पूछे कोई दश्त<ref>जंगल</ref> की रफ़ाकत<ref>दोस्ती</ref> जो
जब आंख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे
+
जब आँख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे
  
तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
+
तुझे अज़ीज़<ref>प्रिय</ref> था और मैंने उसको जीत लिया
 
मेरी तरफ़ भी तो इक पल ख़ुदा देखे
 
मेरी तरफ़ भी तो इक पल ख़ुदा देखे
  
रिफ़ाकते-शब=रातों से दोस्ती; सुकूत=चुप्पी; दश्त=जंगल; रफ़ाकत=दोस्ती; अज़ीज़=प्रिय
+
{{KKMeaning}}
 
</poem>
 
</poem>

12:17, 16 जून 2010 के समय का अवतरण

उसी तरह से हर इक ज़ख़्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे

गुज़र गए हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब<ref>रातों से दोस्ती</ref> में
इक उम्र हो गई चेहरा वो चाँद-सा देखे

मेरे सुकूत<ref>चुप्पी</ref> से जिसको गिले रहे क्या-क्या
बिछड़ते वक़्त उन आंखों का बोलना देखे

तेरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे

बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आँखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे

उसी से पूछे कोई दश्त<ref>जंगल</ref> की रफ़ाकत<ref>दोस्ती</ref> जो
जब आँख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे

तुझे अज़ीज़<ref>प्रिय</ref> था और मैंने उसको जीत लिया
मेरी तरफ़ भी तो इक पल ख़ुदा देखे

शब्दार्थ
<references/>