"सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर
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सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी | सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी | ||
− | सो हम भी उसकी गली से गुज़र | + | सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं |
सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़ | सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़ | ||
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सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है | सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है | ||
− | सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर | + | सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं |
सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें | सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें | ||
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अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं | अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं | ||
− | फ़राज़ अब लहजा बदल के देखते हैं | + | फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं |
जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र | जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र | ||
कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं | कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं | ||
− | + | रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-खुराम कोई तो हो | |
− | सो अपने आप से आगे | + | सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं |
तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता | तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता | ||
− | यह बार बार जो आँखों को | + | यह बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं |
ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में | ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में | ||
− | जो लालचों से तुझे, मुझे | + | जो लालचों से तुझे, मुझे जल के देखते हैं |
यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे | यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे | ||
पंक्ति 96: | पंक्ति 96: | ||
समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं | समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं | ||
− | अभी | + | अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए |
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं | हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं | ||
बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर | बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर | ||
− | चलो फ़राज़ को | + | चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं |
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17:18, 16 जून 2010 का अवतरण
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं
सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुग्नू ठहर के देखते हैं
सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं
सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं
सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी
जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं
सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं
सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं
वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं
किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं
कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं
जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं
रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-खुराम कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं
तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता
यह बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं
ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में
जो लालचों से तुझे, मुझे जल के देखते हैं
यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे
हज़ार इक ही कालिब में ढल के देखते हैं
न तुझको मात हुई न मुझको मात हुई
सो अबके दोनों ही चालें बदल के देखते हैं
यह कौन है सरे साहिल कि डूबने वाले
समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं
अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं
बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर
चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं