"शैल विहंगिनी / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
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+ | पींजरे के बीच फुसलाता नहीं हूँ। | ||
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+ | स्वरों में जो तुमळज्ञश्रै | ||
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+ | रूप् लेते राग | ||
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+ | वे आते कहाँ से- | ||
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+ | बादलों के गर्जनों से, | ||
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+ | बात करते तरु-दलों से, | ||
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+ | औ' दारोदीवार के जो दायरे हैं | ||
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+ | बंद उसमें ये किए जाते नहीं हैं। | ||
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+ | किंतु मैंने | ||
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+ | उस दिवस उन्माद में | ||
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+ | अपनी विहंगिनि से कहा था- | ||
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+ | :::"क्या तूने कभी हृदय का देश देखा? | ||
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+ | भाव | ||
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+ | जब उसमें उमड़ते | ||
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+ | घुमड़ते, घिरते | ||
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+ | झरझर नयन झरते, | ||
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+ | तब जलद महसूस करते | ||
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+ | फ़र्क पानी, | ||
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+ | सोम रस का। | ||
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+ | प्यार, | ||
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+ | सारे बंधनों को तोड़, | ||
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+ | उर के द्वार सारे खोल, | ||
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+ | आपा छोड़, | ||
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+ | कातर, विवश, अर्पित, | ||
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+ | द्रवित अंतर्दाह से | ||
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+ | है बोलता जब, | ||
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+ | उस समय कांतार | ||
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+ | अपनी मरमरहाट की | ||
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+ | निरर्थकता समझकर | ||
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+ | शर्म से है सिर झुकाता। | ||
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+ | दो हृदय के | ||
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+ | बीच की असमर्थता बन | ||
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+ | वासना जब साँस लेती | ||
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+ | और आँधी-सी | ||
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+ | उड़ाकर दो तृणों को | ||
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+ | साथ ले जाती | ||
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+ | विसुधि-विस्मृति-विजन में, | ||
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+ | उस समय निर्झर समझता है | ||
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+ | कि क्या है जिंदगी, | ||
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+ | क्या साँस गिनना।' | ||
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+ | और ऐसे भाव, | ||
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+ | ऐसे प्यार, | ||
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+ | ऐसी वासना का | ||
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+ | स्वप्न ज्वालामय दिखाकर | ||
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+ | मैं उसे लाया बनाकर बंदिनी | ||
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+ | कुछ ईट औ' कुछ तीलियों की। | ||
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+ | किंतु उसके आगमन के | ||
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+ | साथ ही ऐसा लगा, | ||
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+ | कुछ हट गया, | ||
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+ | कुछ दब गया, | ||
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+ | कुछ थम गया, | ||
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+ | आग मन की बुझ गई हो। | ||
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+ | पर बुझी भी आग | ||
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+ | में कुछ ताप रहता, | ||
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+ | राख में भी फूँकने से | ||
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+ | कुछ धुआँ तो है निकलता। | ||
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+ | भाव बंदी हो गया, | ||
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+ | वह तो नदी है। | ||
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+ | बाढ़ में उसके बहा जो | ||
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+ | डूबता है। | ||
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+ | (या कि पाता पार, पर | ||
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+ | इसका उठाए कैन ख़तरा। | ||
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+ | किंतु भरता गागरी जो | ||
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+ | वह नहाता या बुझाता प्यास अपनी। | ||
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+ | प्यार बंदी हो गया; | ||
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+ | वह तो अनल है। | ||
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+ | जो पड़ा उसकी लपट में | ||
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+ | (या कि कुंदन बन चमकता, | ||
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+ | पर उठाए कौन ख़तरा।) | ||
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+ | जो अंगीठी में जुगा लेता उसे, | ||
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+ | व्यंजन बनाता, | ||
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+ | तापता, | ||
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+ | घर गर्म रखता। | ||
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+ | वासना बंदी हुई, | ||
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+ | बस काम उसका रह गया भरती-पिचकती | ||
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+ | चाम की जड़ धौंकनी का। | ||
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+ | बंदिनी की प्रीति बंदि हो गई, | ||
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+ | सब रीति बंदी हो गई, | ||
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+ | सब गीत बंदी हो गए, | ||
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+ | वे बन गए केवल नक़ल | ||
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+ | केवल प्रतिध्वनि | ||
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+ | उन स्वरों के, | ||
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+ | जो कि उठते सब घरों से, | ||
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+ | बोलते सब लोग जिनमें, | ||
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+ | डोलते सब लोग जिन पर | ||
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+ | डूबते सब लोग जिनके बीच | ||
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+ | औ' जिनसे उभरने का | ||
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+ | नहीं है नाम लेते! | ||
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+ | मत डरो, | ||
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+ | ओ शैल की | ||
+ | |||
+ | सुंदा, मुखकर, सुखकर | ||
+ | |||
+ | विहंगिनि, | ||
+ | |||
+ | मैं पकड़ने को तुम्हें आता नहीं हूँ। | ||
+ | |||
+ | मैं पुरानी भूल | ||
+ | |||
+ | दुहराने फिर नहीं जा रहा; | ||
+ | |||
+ | स्वच्छंदिनी, तुम | ||
+ | |||
+ | गगन की किरणावली से, | ||
+ | |||
+ | धरणि की कुसुमावली से, | ||
+ | |||
+ | पवन की अलकावली से | ||
+ | |||
+ | रंग खींचो। | ||
+ | |||
+ | बादलों के गर्जनों से | ||
+ | |||
+ | बात करते तरु-दलों से, | ||
+ | |||
+ | साँस लेते निर्झरों से | ||
+ | |||
+ | राग सीखो। | ||
+ | |||
+ | और कवि के | ||
+ | |||
+ | शब्द जालों, | ||
+ | |||
+ | सब्ज़ बाग़ों से | ||
+ | |||
+ | कभी धोखा न खाओ। | ||
+ | |||
+ | नीड़ बिजली की लताओं पर बनाओ। | ||
+ | |||
+ | इंद्रधनु के गीत गाओ। |
02:05, 17 जून 2010 के समय का अवतरण
मत डरो
ओ शैल की
सुंदर, मुखर, सुखकर
विहंगिनि!
मैं पकड़ने को तुम्हें आता नहीं हूँ,
जाल फैलाता नहीं हूँ,
पींजरे में डाल तुमको
साथ ले जाना नहीं मैं चाहता हूँ,
और करना बंद ऐसे पींजरे में
बंद हम जिसमें स्वयं हैं-
ईंट-पत्थर का बना वह पींजरा
जिसको कि हमने
नाम घर का दे दिया है;
और बाहर की तरोताज़ा हवाओं
और बाहर के तरल, निर्मल प्रवाहों
औ' खुले आकाश के अविरल इशारों,
या कहूँ संक्षेप में तो,
प्रकृति के बहु राग-रस-रंगी प्रवाहों से
अलग हमने किया है।
जानता मैं हूँ
परों पर जो तुम्हारे
खेलती रंगीनियाँ हैं,
वे कहाँ से आ रही हैं-
गगन की किरणावली से,
धरणि की कुसुमावली से,
पवन की अलकावली से-
औ' दरोदीवार के जो पींजरे हैं
बंद उसमें ये किए जाते नहीं है।
भूल मुझको एक
आई याद
यौवन के प्रथम पागल दिनों की।
एक तुम-सी थी विहंगिनी
मैं जिसे फुसला-फँसाकर
ले गया पींजरे में-
- "जानता तू है नहीं
मैं जन्मना कवि?
रवि जहाँ जाता नहीं है
खेल में जाता वहाँ मैं।
कौन-सी ऐसी किरण है,
किस जगह है,
जो कि मेरे एक ही संकेत पर
सब मान-लज्जा
कर निछावर,
मुसकरा कर
मैं जहाँ चाहूँ वहाँ पर
वह बिखर जाती नहीं है?
कौन-सा ऐसा कुसुम है
किस जगह है-
भूमि तल पर
या कि नंदन वाटिका में-
जो कि मेरी कल्पनाओं की उँगलियों के
परस पर विहँस
झर जाता नहीं है?
कौन-सी मधु गंध है
चंपा, चमेली और बेला की
लटों में,
या कि रंभा-मेनका-सी
अप्सराओं के
लहरधर कुंतलों में,
जो कि मेरी
भावनाओं से लिपटकर
आ नहीं सकती वहाँ पर
ला जहाँ पर
मैं उसे चाहूँ बसाना?"
बात मेरी सुन हँसी वह
शब्द-जालों में फँसी वह।
पींजरे में डाल उसको
गीत किरणों के,
अनगिनत मैंने लिखे
उसके लिए, पर
गंध-रस भीनी हुई रंगीनियाँ
उड़ती गईं उसकी निरंतर!
'स्वप्न मेरे,
बोलते क्यों तुम नहीं हो?
क्या मुझे धोखा रहे देते
बराबर?'
और वे बोले कि
- 'पागल
मानवी स्तर-साँस के
आकार जो हम,
पत्र, स्याही, लेखनी का
ले त्रिगुण आधार
पुस्तक-पींजरे में,
आलमारी के घरों में
जब कि होते बंद
रहते अंत में क्या?
सिर्फ़
काले हर्फ़
काले ख़त-खचीने!
और तू लाया जिसे है
वह प्रकृति के कोख से जन्मी,
प्रकृति की गोद में पतली,
प्रकृति के रंग में ढलती रही है।'
स्वप्न से श्रृंगार करने के लिए
लाया जिसे था,
अब उसी के वास्ते
एकत्र करता
सौ तरह के मैं प्रसाधन!
किंतु उनसे
गंध-रस भीनी हुई
रंगीनियाँ कब लौटती हैं?
स्वप्न की सीमा हुई मालूम;
कवि भी
ग़ल्तियों से सिखते हैं।
स्वप्न अपने वास्ते हैं,
स्वप्न अपने प्राण मन को
गुदगुदाने के लिए हैं,
स्वप्न अपने को भ्रमाने
भूल जाने के लिए हैं।
फूल कब वे हैं खिलते?
रश्मि कब सोती जगाती?
और कब वे
गंध का घूँघट उठाते?
तोड़ते दीवार कब वे?
खोलते हैं
पींजरों का द्वार कब वे?
मैं पुरानी भूल
दुहराने फिर नहीं जा रहा हूँ।
मत डरो
ओ शैल की
सुंदर, मुखकर, सुखकर
विहंगनि!
मैं पकड़ने को तुम्हें आता नहीं हूँ।
पींजरे के बीच फुसलाता नहीं हूँ।
जानता हूँ मैं
स्वरों में जो तुमळज्ञश्रै
रूप् लेते राग
वे आते कहाँ से-
बादलों के गर्जनों से,
बात करते तरु-दलों से,
साँस लेते निर्झरों से-
औ' दारोदीवार के जो दायरे हैं
बंद उसमें ये किए जाते नहीं हैं।
किंतु मैंने
उस दिवस उन्माद में
अपनी विहंगिनि से कहा था-
- "क्या तूने कभी हृदय का देश देखा?
भाव
जब उसमें उमड़ते
घुमड़ते, घिरते
झरझर नयन झरते,
तब जलद महसूस करते
फ़र्क पानी,
सोम रस का।
प्यार,
सारे बंधनों को तोड़,
उर के द्वार सारे खोल,
आपा छोड़,
कातर, विवश, अर्पित,
द्रवित अंतर्दाह से
है बोलता जब,
उस समय कांतार
अपनी मरमरहाट की
निरर्थकता समझकर
शर्म से है सिर झुकाता।
दो हृदय के
बीच की असमर्थता बन
वासना जब साँस लेती
और आँधी-सी
उड़ाकर दो तृणों को
साथ ले जाती
विसुधि-विस्मृति-विजन में,
उस समय निर्झर समझता है
कि क्या है जिंदगी,
क्या साँस गिनना।'
और ऐसे भाव,
ऐसे प्यार,
ऐसी वासना का
स्वप्न ज्वालामय दिखाकर
मैं उसे लाया बनाकर बंदिनी
कुछ ईट औ' कुछ तीलियों की।
किंतु उसके आगमन के
साथ ही ऐसा लगा,
कुछ हट गया,
कुछ दब गया,
कुछ थम गया,
जैसे कि सहसा
आग मन की बुझ गई हो।
पर बुझी भी आग
में कुछ ताप रहता,
राख में भी फूँकने से
कुछ धुआँ तो है निकलता।
भाव बंदी हो गया,
वह तो नदी है।
बाढ़ में उसके बहा जो
डूबता है।
(या कि पाता पार, पर
इसका उठाए कैन ख़तरा।
किंतु भरता गागरी जो
वह नहाता या बुझाता प्यास अपनी।
प्यार बंदी हो गया;
वह तो अनल है।
जो पड़ा उसकी लपट में
राख होता।
(या कि कुंदन बन चमकता,
पर उठाए कौन ख़तरा।)
जो अंगीठी में जुगा लेता उसे,
व्यंजन बनाता,
तापता,
घर गर्म रखता।
वासना बंदी हुई,
बस काम उसका रह गया भरती-पिचकती
चाम की जड़ धौंकनी का।
बंदिनी की प्रीति बंदि हो गई,
सब रीति बंदी हो गई,
सब गीत बंदी हो गए,
वे बन गए केवल नक़ल
केवल प्रतिध्वनि
उन स्वरों के,
जो कि उठते सब घरों से,
बोलते सब लोग जिनमें,
डोलते सब लोग जिन पर
डूबते सब लोग जिनके बीच
औ' जिनसे उभरने का
नहीं है नाम लेते!
मत डरो,
ओ शैल की
सुंदा, मुखकर, सुखकर
विहंगिनि,
मैं पकड़ने को तुम्हें आता नहीं हूँ।
मैं पुरानी भूल
दुहराने फिर नहीं जा रहा;
स्वच्छंदिनी, तुम
गगन की किरणावली से,
धरणि की कुसुमावली से,
पवन की अलकावली से
रंग खींचो।
बादलों के गर्जनों से
बात करते तरु-दलों से,
साँस लेते निर्झरों से
राग सीखो।
और कवि के
शब्द जालों,
सब्ज़ बाग़ों से
कभी धोखा न खाओ।
नीड़ बिजली की लताओं पर बनाओ।
इंद्रधनु के गीत गाओ।