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09:58, 19 जून 2010 के समय का अवतरण
आसमानों में छुपा था शायद|
चांद घर लौट के आया शायद|
रास्ते घर के हो गए रोशन,
गज़बदन जल में फँस गया शायद|
काफ़िला मेरा लुट गया होता,
मुझ से कुछ ज़ुल्म हो गया शायद|
हर नतीज़े की वज़ह होती है,
कागा मुंडेर से उड़ा शायद|
अब के फिर हाथ तो उठाओगे 'विजय'
अब के मंज़ूर हो दुआ शायद|