"औरतों के नाम / कविता वाचक्नवी" के अवतरणों में अंतर
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बंद मुँह भी | बंद मुँह भी | ||
कैसे मुस्कुरा लेते हैं इतना, | कैसे मुस्कुरा लेते हैं इतना, | ||
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आँचलों में सिमटे | आँचलों में सिमटे | ||
नंगई सँवारते हैं। | नंगई सँवारते हैं। | ||
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टूटे पुलों के छोरों पर | टूटे पुलों के छोरों पर | ||
तूफान पार करने की | तूफान पार करने की | ||
− | उम्मीद लगाई | + | उम्मीद लगाई औरतो ! |
जमीन धसक रही है | जमीन धसक रही है | ||
पहाड़ दरक गए हैं | पहाड़ दरक गए हैं | ||
− | बह गई हैं | + | बह गई हैं - चौकियाँ |
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं | शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं | ||
जंगल | जंगल | ||
पंक्ति 42: | पंक्ति 44: | ||
पानी लगातार तुम्हारे डूबने की | पानी लगातार तुम्हारे डूबने की | ||
साजिशों में लगा है, | साजिशों में लगा है, | ||
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अंधेरे ने छीन ली है भले | अंधेरे ने छीन ली है भले | ||
− | + | आँखों की देख | |
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पर मेरे पास | पर मेरे पास | ||
अभी भी बचा है | अभी भी बचा है | ||
एक दर्पण | एक दर्पण | ||
चमकीला। | चमकीला। |
19:45, 25 जून 2010 का अवतरण
कभी पूरी नींद तक भी
न सोने वाली औरतो !
मेरे पास आओ,
दर्पण है मेरे पास
जो दिखाता है
कि अक्सर फिर भी
औरतों की आँखें
खूबसूरत होती क्यों हैं,
चीखों-चिल्लाहटों भरे
बंद मुँह भी
कैसे मुस्कुरा लेते हैं इतना,
और, आप !
जरा गौर से देखिए
सुराहीदार गर्दन के
पारदर्शी चमड़े
के नीचे
लाल से नीले
और नीले से हरे
उँगलियों के निशान
चुन्नियों में लिपटे
बुर्कों से ढँके
आँचलों में सिमटे
नंगई सँवारते हैं।
टूटे पुलों के छोरों पर
तूफान पार करने की
उम्मीद लगाई औरतो !
जमीन धसक रही है
पहाड़ दरक गए हैं
बह गई हैं - चौकियाँ
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं
जंगल
दल-दल बन गए हैं
पानी लगातार तुम्हारे डूबने की
साजिशों में लगा है,
अंधेरे ने छीन ली है भले
आँखों की देख
पर मेरे पास
अभी भी बचा है
एक दर्पण
चमकीला।