भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"वो हमें जिस कदर आज़मा रहे है / ख़ुमार बाराबंकवी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ख़ुमार बाराबंकवी |संग्रह= }}{{KKVID|v=lfuAHrxANNo}} <poem> वो हमें …)
(कोई अंतर नहीं)

03:48, 28 जून 2010 का अवतरण

यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें

वो हमें जिस कदर आज़माते रहे
अपनी ही मुश्किलो को बढ़ाते रहे

थी कमाने तो हाथो में अब यार के
तीर अपनो की जानिब से आते रहे

आँखे सूखी हुई नदियाँ बन गई
और तूफ़ा बदस्तूर आते रहे
 
कर लिया सब ने हमसे किनारा मगर
एक नास-ए-गरीब आते जाते रहे

प्यार से उनका इंकार बरहक मगर
उनके लब किसलिए थरथराते रहे

याद करने पर भी दोस्त आए न याद
दोस्तो के करम याद आते रहे

बाद-ए-तौबा ये आलम रहा मुद्द्तो
हाथ बेजाम भी लब तक आते रहे

अल्लमा लफ़्जिशे यक तब्बसुम "खुमार"
ज़िन्दगी भर हम आँसू बहाते रहे