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14:13, 29 जून 2010 के समय का अवतरण
घुट-घुटकर जीते रहने को
चुप-चुप सब सहते रहने को
किसने कहा था
माटी थी तो बन जाती प्रतिमा कोई
जीवन भर अनगढ़ रहने को
किसने कहा था
मेघ गगन के बह निकले सब
झरने पर्वत का दर खोल
बह निकले सब
उड़ी हवा, उड़े पखेरु
खुली थी खिड़की तो उड़ जाती
बोझ दीवारों का सहने को
किसने कहा था
दिन आता है धुआं-धुआं
रात सुलगती जाती है
भीतर-बाहर सब जलता है
ओस या कोहरा या कोई बारिश
कुछ भी बन जाती
पल-पल जलते जाने को
किसने कहा था
शोर बहुत है, शोर हर तरफ़
आवाज़ें हर तरफ़ बहुत
पर एक लम्बी खामोशी
तन्हा-सा वीरां सन्नाटा
क्या तूने चुना
कह जाती सब
लिख जाती इतिहास
मौंन, मूक जीते जाने को
किसने कहा था