भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"तब और अब / सांवर दइया" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: <poem>तब मस्तमौला मन की मिल्कियात थे ढाई आख्र जिनकी खनक सुन खिंचे आत…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
13:59, 2 जुलाई 2010 के समय का अवतरण
तब
मस्तमौला मन की मिल्कियात थे
ढाई आख्र
जिनकी खनक सुन
खिंचे आते लोग
जैसे पूनम को आता सागर में ज्वार
मुट्ठियों में होते मोती
तह तक आते खंगाल !
अब
बुद्धि के तरकश में तर्क के तीर लिए
योद्धा बने खडे
भेद रहे हैं दूसरों की दीवारें
ढहाकर उनके दुर्ग जहां-तहां
बना रहे अपने मठ यहां-वहां
फिर भी हैं कंगाल !