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"हाइकु कविताएँ / जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर

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उगने लगे
 
उगने लगे

17:15, 4 जुलाई 2010 का अवतरण

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उगने लगे
कंकरीट के वन
उदास मन !




धूप के पाँव
थके अनमने से
बैठे सहमे।




मरने न दो
परम्पराओं को कभी
बचोगे तभी।




छिड़ा जो युद्ध
रोयेगी मानवता
हँसगे गिद्ध।




कुछ कम हो
शायद ये कुहासा
यही प्रत्याशा।




मिलने भी दो
राम और ईसा को
भिन्न हैं कहाँ !




बिना धुरी के
घूम रही है चक्की
पिसेंगे सब।





चींटी बने हो
रौंदे तो जाआगे ही
रोना धोना क्यों?




सूर्य के पाँव
चूमकर सो गए
गाँव के गाँव।




यूँ ही न बहो
पर्वत–सा ठहरो
मन की कहो।




पतंग उड़ी
डोर कटी‚ बिछुड़ी
फिर न मिली।




बूढा. सूरज
झेलेगा कब तक
तम के दंश।




निगल गई
सदियों का सृजन
क्रोधित धरा।




मुढ़ैठा बाँधे
अकड़ा खड़ा चना
माटी का बेटा।




धूप गौरैया
उतरती छज्जे से
आँगन बीच !





थका सूरज
ढहा देगा फिर भी
तम का दुर्ग।




पीटता नभ
बिजली के कोढ़े से
रोता बादल !




रोज ले आती
गौरैया घास-फूस
फेंक देती माँ !





साँझ होते ही
बैठता आसन पे
ऋषि सूरज।




गंध के बोरे
लाता है ढो ढोकर
हवा का घोड़ा।




ओस की बूँद
कैक्टस पर बैठी
शूली पे सन्त !




अनाम गन्ध
बिखेर रही हवा
धान के खेत।




हाइकु हंस
हौले से हवा हुआ
काँपा शैवाल।





क्यों तू उदास
दूब अभी है ज़िन्दा
पिक कूकेगा ।





शहरी चक्की
लोकगीत पीसना
अबाध गति।





सहम गई
फुदकती गौरैया
शुभ नहीं ये।





लोक रोपता
महाकाव्य की पौध
लुनता कवि।




बादल रोया
धरती भी उमगी
फसल उगी।




स्वागत हुआ
दूब–धान आया
लोक जीवन।




नदी बनाता
सोख हवा से नमीं
वृद्ध पहाड़।




छीन लेता है
धनी मेघों से जल
दानी पहाड़।





रात सिसकी
दूब ने सजा लिए
कई हाइकु।