"काश, कवितायेँ हादसा होतीं / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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+ | अगर कवितायेँ हादसा होतीं | ||
+ | उनके घटने पर | ||
+ | भीड़ उमड़ पड़ती, | ||
+ | पुलिस कवियों का पीछा करती | ||
+ | कवि भागते-भागते बेदम हो जाते | ||
+ | तब वे मंचों पर न होकर | ||
+ | फरार फिरते | ||
+ | या, अपने-अपने घरों में | ||
+ | नज़रबंद होते | ||
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+ | दिवसारम्भ पर | ||
+ | काम पर निकले लोग | ||
+ | सार्वजनिक स्थानों पर | ||
+ | रोचक घटनाओं की तर्ज़ पर | ||
+ | घटित होती कविताओं के | ||
+ | पिपासु तमाशबीन होते | ||
+ | अनिष्टाकांक्षी जिज्ञासाएं शांत करते. | ||
+ | आफिस में देर हो रहे लोग | ||
+ | किसी कविता के होने से | ||
+ | सड़क-जाम का बहाना बता | ||
+ | माफी और रहम के पात्र बनाते. | ||
+ | हादसों के रोजनामचे में | ||
+ | कवितायेँ ही कविताएँ | ||
+ | और सिर्फ कवितायेँ होतीं, | ||
+ | कविताओं की भयानकता पर | ||
+ | कवियों की जघन्यता पर | ||
+ | चाय-पान की गुमटियों पर | ||
+ | धुआंधार चर्चाएँ होतीं | ||
+ | चर्चाओं की बारिश होती | ||
+ | चर्चाओं की आंधी चलती | ||
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+ | कवितायेँ बीच-बाज़ार पेश होतीं | ||
+ | डरी-सहमी औरतें | ||
+ | घरों की खिड़कियों से | ||
+ | उचका-उचक देखतीं. | ||
+ | शहर में कई ज़गह | ||
+ | कई कविताओं के | ||
+ | एक-साथ घटने पर | ||
+ | कर्फ्यू लग जाता | ||
+ | और कहीं-कहीं मार्शल-ला भी, | ||
+ | यानी कविताओं के होने पर | ||
+ | प्रतिबन्ध लग जाता. | ||
+ | बच्चे भय खाते | ||
+ | जवान छिप जाते | ||
+ | बूढ़े कतराते. | ||
+ | कविता होने की अंदेशा में | ||
+ | तलाशी ली जाती | ||
+ | चेतावनी दी जाती | ||
+ | बस की सीटों पर लिखा होता-- | ||
+ | 'कृपया, अपनी सीट के नीचे देखें | ||
+ | अगर कोई कविता हो तो | ||
+ | तुरंत शोर करें | ||
+ | लोगों को सावधान करें | ||
+ | या पुलिस को इत्तला करें.' | ||
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+ | फरजा कीजिए | ||
+ | कि कवितायेँ हादसा हैं | ||
+ | तो वे कहीं-कहीं न होतीं | ||
+ | न दिल में होतीं | ||
+ | न दिमाग में | ||
+ | न कलम में | ||
+ | न किताब में, | ||
+ | न गाँव में | ||
+ | न नगर में, | ||
+ | मज़णुओं की डायरियों में भी न होतीं. | ||
+ | तब, प्रेम-पत्रों के दिन लड़ जाते | ||
+ | ममता और प्रेम दूभर हो जाते | ||
+ | बुद्ध और गांधी अप्रिय हो जाते, | ||
+ | जहां मंदिर और मस्जिद हैं | ||
+ | जहां पार्क और विहार हैं | ||
+ | जहां सी-बीच और ताजमहल हैं | ||
+ | वहां हादसों के बदसूरत पहाड़ होते. | ||
+ | शिलालेखों पर, | ||
+ | स्मारकों पर | ||
+ | मील के पत्थरों और साइनबोर्डों पर | ||
+ | विज्ञापन और इश्तेहारों पर | ||
+ | हादसे होते | ||
+ | हादसे होते | ||
+ | हादसे होते... | ||
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+ | पर, खेद है | ||
+ | कवितायेँ हादसा नहीं हैं | ||
+ | अन्यथा, यहाँ बियाँबा न होता | ||
+ | और इंसान का चेहरा यूं न होता. | ||
+ | क़ानून ज़मादार का कूड़ा न होता | ||
+ | लोकतंत्र मदारी का ज़मूरा न होता | ||
+ | जो अपनी काली पत्ती वाली आँखों से | ||
+ | घटित होने से पहले | ||
+ | हादसों को | ||
+ | मदारी के हाथ की सफाई न बताता. | ||
+ | बेशक! कवितायेँ हादसा होतीं | ||
+ | तो बंदूकों से अबीर-गुलाल झड़ते | ||
+ | बारूदों से गुलाब खिलते | ||
+ | रेगिस्तानों में खेत-खलिहान संवरते | ||
+ | आतंकवादी सरसों की फासला उगाते | ||
+ | और सीमा-पार से घुसपैठिए | ||
+ | विश्व-शान्ति के परचम | ||
+ | फहराते आते. | ||
+ | |||
+ | काश, कवितायेँ हादसा होतीं | ||
+ | तो हादसों के कुछ और मायने होते, | ||
+ | हादसे मंदिरों की नींव डालते | ||
+ | असंख्य काबा और काशी बनाते. |
12:44, 5 जुलाई 2010 का अवतरण
काश, कवितायेँ हादसा होतीं
अगर कवितायेँ हादसा होतीं
उनके घटने पर
भीड़ उमड़ पड़ती,
पुलिस कवियों का पीछा करती
कवि भागते-भागते बेदम हो जाते
तब वे मंचों पर न होकर
फरार फिरते
या, अपने-अपने घरों में
नज़रबंद होते
दिवसारम्भ पर
काम पर निकले लोग
सार्वजनिक स्थानों पर
रोचक घटनाओं की तर्ज़ पर
घटित होती कविताओं के
पिपासु तमाशबीन होते
अनिष्टाकांक्षी जिज्ञासाएं शांत करते.
आफिस में देर हो रहे लोग
किसी कविता के होने से
सड़क-जाम का बहाना बता
माफी और रहम के पात्र बनाते.
हादसों के रोजनामचे में
कवितायेँ ही कविताएँ
और सिर्फ कवितायेँ होतीं,
कविताओं की भयानकता पर
कवियों की जघन्यता पर
चाय-पान की गुमटियों पर
धुआंधार चर्चाएँ होतीं
चर्चाओं की बारिश होती
चर्चाओं की आंधी चलती
कवितायेँ बीच-बाज़ार पेश होतीं
डरी-सहमी औरतें
घरों की खिड़कियों से
उचका-उचक देखतीं.
शहर में कई ज़गह
कई कविताओं के
एक-साथ घटने पर
कर्फ्यू लग जाता
और कहीं-कहीं मार्शल-ला भी,
यानी कविताओं के होने पर
प्रतिबन्ध लग जाता.
बच्चे भय खाते
जवान छिप जाते
बूढ़े कतराते.
कविता होने की अंदेशा में
तलाशी ली जाती
चेतावनी दी जाती
बस की सीटों पर लिखा होता--
'कृपया, अपनी सीट के नीचे देखें
अगर कोई कविता हो तो
तुरंत शोर करें
लोगों को सावधान करें
या पुलिस को इत्तला करें.'
फरजा कीजिए
कि कवितायेँ हादसा हैं
तो वे कहीं-कहीं न होतीं
न दिल में होतीं
न दिमाग में
न कलम में
न किताब में,
न गाँव में
न नगर में,
मज़णुओं की डायरियों में भी न होतीं.
तब, प्रेम-पत्रों के दिन लड़ जाते
ममता और प्रेम दूभर हो जाते
बुद्ध और गांधी अप्रिय हो जाते,
जहां मंदिर और मस्जिद हैं
जहां पार्क और विहार हैं
जहां सी-बीच और ताजमहल हैं
वहां हादसों के बदसूरत पहाड़ होते.
शिलालेखों पर,
स्मारकों पर
मील के पत्थरों और साइनबोर्डों पर
विज्ञापन और इश्तेहारों पर
हादसे होते
हादसे होते
हादसे होते...
पर, खेद है
कवितायेँ हादसा नहीं हैं
अन्यथा, यहाँ बियाँबा न होता
और इंसान का चेहरा यूं न होता.
क़ानून ज़मादार का कूड़ा न होता
लोकतंत्र मदारी का ज़मूरा न होता
जो अपनी काली पत्ती वाली आँखों से
घटित होने से पहले
हादसों को
मदारी के हाथ की सफाई न बताता.
बेशक! कवितायेँ हादसा होतीं
तो बंदूकों से अबीर-गुलाल झड़ते
बारूदों से गुलाब खिलते
रेगिस्तानों में खेत-खलिहान संवरते
आतंकवादी सरसों की फासला उगाते
और सीमा-पार से घुसपैठिए
विश्व-शान्ति के परचम
फहराते आते.
काश, कवितायेँ हादसा होतीं
तो हादसों के कुछ और मायने होते,
हादसे मंदिरों की नींव डालते
असंख्य काबा और काशी बनाते.