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बन के काज़ल सज जाना तुम।
 
बन के काज़ल सज जाना तुम।
  
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23:50, 2 मई 2007 का अवतरण

रचनाकार: भावना कुँअर

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फुरसत से घर में आना तुम

और आके फिर ना जाना तुम


मन तितली बनकर डोल रहा

बन फूल वहीं बस जाना तुम ।


अधरों में अब है प्यास जगी

बनके झरना बह जाना तुम ।


बेरंग हुए इन हाथों में

बनके मेंहदी रच जाना तुम ।


नैनों में है जो सूनापन

बन के काज़ल सज जाना तुम।


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