भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सखी री देखहु बाल-बिनोद / भारतेंदु हरिश्चंद्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र }} <poem> सखी री देखहु बाल-बिनोद…)
 
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
}}
 
}}
 
<poem>
 
<poem>
सखी री देखहु बाल-बिनोद|
+
सखी री देखहु बाल-बिनोद
खेलत राम-कृष्ण दोऊ आँगन किलकत हँसत प्रमोद॥
+
खेलत राम-कृष्ण दोऊ आँगन किलकत हँसत प्रमोद ।।
कबहुँ घूटूरुअन दौरत दोऊ मिलि धूल-धूसरित गात।
+
कबहुँ घूटूरुअन दौरत दोऊ मिलि धूल-धूसरित गात ।
देखि-देखि यह बाल चरित छबि, जननी बलि-बलि जात॥
+
देखि-देखि यह बाल चरित छबि, जननी बलि-बलि जात ।।
झगरत कबहुँ दोऊ आनंद भरि, कबहुँ चलत हैं धाय।
+
झगरत कबहुँ दोऊ आनंद भरि, कबहुँ चलत हैं धाय ।
कबहुँ गहत माता की चोटी, माखन माँगत आय॥
+
कबहुँ गहत माता की चोटी, माखन माँगत आय ।।
घर घर तें आवत ब्रजनारी, देखन यह आनंद।
+
घर घर तें आवत ब्रजनारी, देखन यह आनंद ।
बाल रूप क्रीड़त हरि आँगन, छबि लखि बलि ’हरिचंद’॥
+
बाल रूप क्रीड़त हरि आँगन, छबि लखि बलि ’हरिचंद’ ।।
 
</poem>
 
</poem>

20:31, 10 जुलाई 2010 के समय का अवतरण

सखी री देखहु बाल-बिनोद ।
खेलत राम-कृष्ण दोऊ आँगन किलकत हँसत प्रमोद ।।
कबहुँ घूटूरुअन दौरत दोऊ मिलि धूल-धूसरित गात ।
देखि-देखि यह बाल चरित छबि, जननी बलि-बलि जात ।।
झगरत कबहुँ दोऊ आनंद भरि, कबहुँ चलत हैं धाय ।
कबहुँ गहत माता की चोटी, माखन माँगत आय ।।
घर घर तें आवत ब्रजनारी, देखन यह आनंद ।
बाल रूप क्रीड़त हरि आँगन, छबि लखि बलि ’हरिचंद’ ।।