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"पत्नी-१. गृह प्रवेश पर / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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उम्र की बीहड़ सड़कों पर  
 
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और वहीं पइयां बैठ
 
और वहीं पइयां बैठ
 
मजे से जीमना
 
मजे से जीमना
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उसने कोने-कोने मुआयना किया
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नाक-भौंह सिकोड़ी
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माथे पर बल दिया,
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सीलती दुछत्ती देखी
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जुबान पर च्च च्च चटकाया
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सुर खुशामदी लहजे में
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पति को देखा, मुस्कराई
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अंधी खिड़की टटोल, फिसकारी मारी
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और नीची छत देख
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सिर बचाया, मुंह बिचकाया
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फिर, लामकुत बेटे को बुला,
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छत से उसके सिर की दूरी नापी,
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खैर खुद को आश्वस्त पाया,
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न कोई अफसोस जताया
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न घर के, घर होने पर आंसू बहाया,
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उस पल अपने 'उनको' खूब फुसलाया
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अपेन बाजू में
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साधिकार बुलाया
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प्यार जताया
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पति पालतू कुत्ता बन
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दुम हिलाते आया उस दम
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उसका उत्साह नहीं हुआ कम,
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पीछे-पीछे पंडिज्जी आए
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आम्र पत्तियों के झालर भी लाए
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आसन लगाई, पूजा के सामान बिछाए
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हल्दी-चावल से अल्पना सजाई
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ताम्र कमंडल पर विधिवत दीपक जलाया
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धूप-दसांग सुलगाए, अगरबत्ती महक्काई
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अग्निवेदी स्थापित की
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फिर, मन्त्र उच्चारे, श्लोक गाए
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शंख बजाए, जयघोष किए
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अर्थात धन-धान्य पूर्णता के
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सारे कर्मकांड किए...
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दम्पती पालथी मार बैठे रहे,
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श्रद्धावत हाथ बांधे,
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विनय की प्रतिमूर्ति बने
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पंडिज्जी के रोबट-सरीखे
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कठपुतली बने रहे
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आरती घुमाए जाने के बाद
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प्रसाद-वितरण  वितरण हुआ,
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मेहमानों ने भर-पेट खाना खाया
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दम्पती भी उनके आशीर्वचनों से अघाए
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पत्नी गृह-स्वामिनी बनी
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पड़ोस में उसकी धौंस जमी,
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प्रजाओं के नए चेहरों ने
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उसके मातहतों ने स्वीकार की,
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वह बुढ़ापे में फूलमती बनी
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मन में बरसों से अंकुरित
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घर का पौध
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आज सचमुच सिंचित हुआ
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पुष्पित और फलित हुआ.

13:35, 13 जुलाई 2010 का अवतरण


पत्नी:गृह-प्रवेश पर

 
उम्र की बीहड़ सड़कों पर
          चलते-चलते
थकने पर धीरज की लाठी
          थामे-थामे
प्रतीक्षा की अनमोल पूंजी से
कमाया अपने सपनों का घर उसने

घर में अतिथि-प्रवेश का बरामदा नहीं
कहीं सूर्य-नमस्कार का आँगन नहीं
कपड़े सुखाने का बारजा नहीं
शौचालय और गुशलखाना नहीं,
यानी, शयनकक्ष में नहाना
बैठक के उदार कोने में शौचना
उससे सटे पथरीले गच पर खाना पकाना
और वहीं पइयां बैठ
मजे से जीमना

उसने कोने-कोने मुआयना किया
नाक-भौंह सिकोड़ी
माथे पर बल दिया,
सीलती दुछत्ती देखी
जुबान पर च्च च्च चटकाया
सुर खुशामदी लहजे में
पति को देखा, मुस्कराई
अंधी खिड़की टटोल, फिसकारी मारी
और नीची छत देख
सिर बचाया, मुंह बिचकाया
फिर, लामकुत बेटे को बुला,
छत से उसके सिर की दूरी नापी,
खैर खुद को आश्वस्त पाया,
न कोई अफसोस जताया
न घर के, घर होने पर आंसू बहाया,
उस पल अपने 'उनको' खूब फुसलाया
अपेन बाजू में
साधिकार बुलाया
प्यार जताया

पति पालतू कुत्ता बन
दुम हिलाते आया उस दम
उसका उत्साह नहीं हुआ कम,
पीछे-पीछे पंडिज्जी आए
आम्र पत्तियों के झालर भी लाए
आसन लगाई, पूजा के सामान बिछाए
हल्दी-चावल से अल्पना सजाई
ताम्र कमंडल पर विधिवत दीपक जलाया
धूप-दसांग सुलगाए, अगरबत्ती महक्काई
अग्निवेदी स्थापित की
फिर, मन्त्र उच्चारे, श्लोक गाए
शंख बजाए, जयघोष किए
अर्थात धन-धान्य पूर्णता के
सारे कर्मकांड किए...

दम्पती पालथी मार बैठे रहे,
श्रद्धावत हाथ बांधे,
विनय की प्रतिमूर्ति बने
पंडिज्जी के रोबट-सरीखे
कठपुतली बने रहे

आरती घुमाए जाने के बाद
प्रसाद-वितरण वितरण हुआ,
मेहमानों ने भर-पेट खाना खाया
दम्पती भी उनके आशीर्वचनों से अघाए

पत्नी गृह-स्वामिनी बनी
पड़ोस में उसकी धौंस जमी,
प्रजाओं के नए चेहरों ने
उसके मातहतों ने स्वीकार की,
वह बुढ़ापे में फूलमती बनी
मन में बरसों से अंकुरित
घर का पौध
आज सचमुच सिंचित हुआ
पुष्पित और फलित हुआ.