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"दिन-रात बसर करते हैं--गज़ल / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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14:35, 13 जुलाई 2010 का अवतरण
दिन-रात बसर करते हैं--गज़ल
जो मेरे साथ दिन-रात बसर करते हैं
लोग उन्हें मेहमान कहते हैं
जिनके लफ्ज़ों से मेरी रूह के कतरे बिखरे
लोग उन्हें बेज़ुबान कहते हैं
जिनकी सरशोरियाँ मैने पचाई थक-छक कर
वो मुझे पीकदान कहते हैं
जिनकी राहों से कांटे बटोरे चुन-चुन कर
वो मुझे कूड़ादान कहते हैं
जिनके अस्मत को सींचा खुद लाहु के चश्मों से
वो इसे रक्त-दान कहते हैं