भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जी ही लेती है/ चंद्र रेखा ढडवाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 17: | पंक्ति 17: | ||
लुका-छिपी करती | लुका-छिपी करती | ||
सब कुछ को बस | सब कुछ को बस | ||
+ | |||
छू कर निकल जाती | छू कर निकल जाती | ||
+ | |||
पानी पर बनी लकीरें मिटाती | पानी पर बनी लकीरें मिटाती | ||
औरत भी | औरत भी |
08:07, 17 जुलाई 2010 के समय का अवतरण
सुबह को
कुछ और सुबह करते
रात को
कुछ और गहराते
मर्द जीता है
सब कुछ के बीच में से
गुज़रते हुए इत्मिनान से
***
उजाले / अँधेरे से
लुका-छिपी करती
सब कुछ को बस
छू कर निकल जाती
पानी पर बनी लकीरें मिटाती
औरत भी
जी ही लेती है.