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Kavita Kosh से
बीच चौराहे पर लड़की
इसलिए खुश हो रही थी किकि वह सरे-बाजार नंगी हो रही थी
इक्कीसवीं सदी के
वह अपने जिस्म की
दिलचस्प किताब से
सारे जिल्द उतार,
पन्ने-पन्ने सहर्ष उघार,
यह जताकर इतरा रही थी
चूंकि अजन्ताई कामुक देवियां
नंगेपन के पक्ष में
बहुतेरी दलीलें पेश करती हैं,
इसलिए नग्नता
प्रगतिशील तर्कजीवियों का
महानगर की उदार-बदन लड़कियां
जो किसी भी अज़नबी के संग
पार्क की ओट में चली जाती हैं कामरत सांप-सांपिन जैसी सरसराती हैं,
आवारा पत्थरों पर बैठ
ब्वायफ्रेंडों से बतियाती हैं--
छू-मंतर हो जाती हैं
--बेशक! वे स्वर्ग की अप्सराओं में
शरीक होंगी,
पंचतारा होटलों में
गन्धर्वों के संग
सबसे उम्दा पल गुजारेंगी, --ऐसा विश्वास है
अटूट विश्वास है
महानगर के तथाकथित
लिच्चड़ मेहमानों का.