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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=संतोष मायामोहन |संग्रह=}}{{KKCatKavita‎}}<poemPoem>मैं देशद्रोही नहीं हूंहूँमैं मानता हूंहूँमैं स्वतन्त्र भारत की देह पर फोड़ा हूंहूँ,लेकिन मैं अजेय नही हूं।हूँ ।बस,अपने भीतर दर्द रखता हूंहूँ,इसीलिए अछूत हूंहूँ,दोषी हूं।हूँ ।मैं अक्षम नहीं हूंहूँ,भूखा हूं।हूँ ।
भले ही आपने मुझ पर-
‘गरीबी की रेखा’ पटक कर,
छुपाने का असफल प्रयास किया है।है ।
फिर भी मैं
तुम्हारे लिए भय हूंहूँ,कि, कोई दबा पड़ा है।है ।
सामने न सही
अपने ही मस्तिष्क में,
मुझ से हाथ मिलाते हो तुम।तुम ।
मैं देशद्रोही नहीं हूंहूँ;
भले ही मैं,
राष्ट्रीय ध्वज पहन लेता हूं।हूँ ।क्यों कि क्योंकि मैं नंगा हूं।हूँ ।
मैं देशद्रोही नहीं हूं हूँ;
चाहे मैं-
राष्ट्रीय गीत पर खड़ा नहीं होता,
क्यों कि, क्योंकि मैंफावड़ा थामे कढ़ाई पर झुका हूंहूँ,
और पीठ पर समय
भूख के चाबुक लिए खड़ा है।है ।
मैं बे-बस हूं।हूँ।
तभी तो-
मैं अपना श्रम बेचता हूं।हूँ ।मैं न्याय क्या मांगूंमांगूँ?न्याय संविधान में छुपा है। है । मेरी पीठ कमजोर है।है ।संविधान को ढ़ो ढो कर अपने गांव गाँव नही ला सकता।
मैं निराशावादी हूं।हूँ ।
तभी तो-
मैनें अपनी अंगुली,
तुम्हारे मुंह मुँह में दे रखी है,खून चूसने के लिए।लिए ।
मै इंसान नही हूंहूँ;वोट हूं।हूँ ।
तभी तो-
आश्वासनों पर लुढ़कता हूं।हूँ ।
पेटी में बंद हो,
पांच साल तक-
शांत पड़ा रहता हूं।हूँ ।
मैं मॉं हूंहूँ!तभी तो सह लेता हूंहूँ,
जमाने भर के कष्ट
तुम्हारी खुशी के लिए।लिए ।
</poem>
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