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"मेरा गांव / ओम पुरोहित ‘कागद’" के अवतरणों में अंतर
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बुढा़या सा | बुढा़या सा | ||
रेत के धोरों में | रेत के धोरों में |
02:03, 20 जुलाई 2010 का अवतरण
मेरा गांव
बुढा़या सा
रेत के धोरों में
सोया पड़ा है।
मेरा गांव,
किसी का गुलाम नहीं,
यहां--
मकानों को पंक्तिबद्ध होना,
कत्तई अनिवार्य नहीं है ।
सड़के सिमटी है शहरो तक,
बिजली खम्भो की बजाय
आकाश मार्ग से आती है
बस
रेल से डरते है
मेरे गांव के लोग।
नेता और अफसर की
शक्ल तक नहीं देखी
अवसर को ही
अफसर कहते है,
मेरे गावं के लोग।
तमतमाती धूप,
लू,
वर्षा,
आंधी,
तूफान
सभी तो होते है
मेरे गांव में।
बस,
कूलर,
फ्रिज,
टाटे,
टीवी
नहीं होते,
मेरे गांव में
जनहितैषी,
जनसेवी,
देश भक्त
सभी होते है
बस,
सफेद पोश
नहीं होते
मेरे गांव में।