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"आंतरिक अकुलाहट / ओम पुरोहित ‘कागद’" के अवतरणों में अंतर

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<poem>परिवार नियोजन का पट्ट
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परिवार नियोजन का पट्ट
 
आपने टांगा है
 
आपने टांगा है
 
उस गरीब की झोंपड़ी पर।
 
उस गरीब की झोंपड़ी पर।

02:12, 20 जुलाई 2010 का अवतरण

परिवार नियोजन का पट्ट
आपने टांगा है
उस गरीब की झोंपड़ी पर।
‘दो या तीन’ का नारा
जुबान पर उसकी
सुराख निकाल कर टांग दिया है।

बच्चों की लम्बी भीड़ देख कर
तुम हंसे जरूर हो।
क्या कभी इसकी वजह पूछी है,
उस बिना छत की-
झोंपड़ी में रहने वाले सरजू से ?
मैने पूछा है!
तमतमाती धूप में
बोझा ढोने वाले उस ताड़ से।
वह बोला था ;
सा‘ब
आजादी की धूप में
अधिकारों की भूख में
हजारों पेट की क्षुधा मिटा
दिन भर हजारों मन ढो कर
तीन जनों के लिए
तीन रोटी जुटाता हूं।
इस बीच
यदि अपनी पीठ को
धनुषाकार में पाता हूं,
तो मखमली गद्दे कहां से जुटाऊ?
बस चमेली के बल,
पीठ के बल निकाल लेता हूं।
क्या करूं।
क्या दोष है मेरा ??
चम्पेली और सीतू
कम्बख्त मूर्ख है,
जो भूखी मां के पेट को छोड़ कर
इस भूखी दुनिया में आ गये।
भूखों मरेंगे साले!
ये भी भोगेंगे,
कोई और भोगेगा
इनके बाद।

चमेली भी बोली थी;
सा‘ब
दिन भर
खाली हंडिया में--
कड़छी हिलाते-हिलाते
हाथ तो ऐंठ ही जाता है!
भूखे बच्चों का रोना-
बन्द तो करना ही होता है।
वो,जो रंगीन भीड़ है,
उसको-
गरीब बच्चे का रोना
कष्ट देता है।
बस,
उनका गाल रंगना पड़ता है।
ऐसे में हाथ ऐंठ ही जाता है।
यदि सीतू का बाप,
अपनी पीठ के बल निकालता है,
तो मैं भी अपने हाथों की ऐंठन
उसके पिंजराये सीने के इर्द-गिर्द
अपनी बाहें लपेट कर-
निकाल लेती हूं।
क्या दोष है मेरा ?

कल तक मैं बच्ची थी,
साड़ी बांधना सीखी थी
कि, सीतू आ गया,
सीतू आया नही
कि चम्पेली आ गई।
अब एक और मेरे पेट की भूख में
तप रहा है
बाहर आने को।
सा‘ब!
ये ‘दो या तीन’ का पट्ट
हमें दे दो ?
खुली छत है,
ढंप जायेगी,
इस बार-
सर्दी बे-औलाद चली जायेगी।
कुछ तो बोली थी
चमेली की पड़ौसिन झुनिया।
सा‘ब!
मैने परिवार नियोजित करने की सोच
कॉपर-टी लगवाई थी।
ये बिजिया कमबख्त
जन्म से पहले की भूखी थी
गर्भाशय में घुसते ही,
कॉपर-टी खा गई।
तभी तो-
कॉपर-टी सी बाहर आ गई
....ना मुराद.......अभी भी भूखी है।
गली की आवारा कुतिया के-
स्तन काटती है।
सामने वाले सा‘ब की कोठी पर,
जूठे बर्तन चाटती है
और
डांट खाकर,
दोपहर उनके ही फर्श पर काट लेती है।
कमबख्त,
रात भर मेरे खाली पेट पर,
लातें मार कर
बुढाये नन्हे हाथों से
मेरे स्तन ढूंढती है।
आकारों की अनुपस्थिति पा,
मुझे छोड़
सुबह,
कुतिया के सीने से लग कर रोती है।
मेरे हिस्से की रोटी से,
एक रोटी ले,
उस कुतिया को देती है।
कमबख्त, उसकी आंखों में
प्यार,
दुलार,
ममता
और मेरा अक्स तलाशती है।
मुझे दुत्कार,
उसे पुचकारती है।

सा‘ब
मुझे रोटी नहीं
मेरी ममता को
ममत्व का अधिकार दे दो!
रिक्त आंखों को दे दो!
किन्ही ऐसे क्षणों के लिए
वात्सलय के दो आंसू !!