"बेशर्म कहानियां / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
''' बेशर्म कहानियां ''' | ''' बेशर्म कहानियां ''' | ||
+ | |||
ये जो कहानियां हैं | ये जो कहानियां हैं | ||
बडी मुंहफट्ट और बदतमीज हैं, | बडी मुंहफट्ट और बदतमीज हैं, | ||
पंक्ति 19: | पंक्ति 20: | ||
हंसोढों के आगे | हंसोढों के आगे | ||
नीलाम कर देती हैं, | नीलाम कर देती हैं, | ||
− | पढाकू कुक्कुरों से | + | पढाकू कुक्कुरों से नुचवाने-छितराने |
पंडालों-चौरस्तों पर | पंडालों-चौरस्तों पर | ||
धकेलकर-पटक कर | धकेलकर-पटक कर | ||
पंक्ति 26: | पंक्ति 27: | ||
डांटू या फटकारूं | डांटू या फटकारूं | ||
या, बार-बार लतियाऊ | या, बार-बार लतियाऊ | ||
− | + | बेकहन-बेहया बाज नहीं आती हैं, | |
फंटूसी-फटेहाली-फटीचरी | फंटूसी-फटेहाली-फटीचरी | ||
बकवासी किताबी जुबानों से | बकवासी किताबी जुबानों से | ||
पंक्ति 54: | पंक्ति 55: | ||
खरहर जमीन पर माई के हाथों | खरहर जमीन पर माई के हाथों | ||
पाथी हुई लिट्टीयां | पाथी हुई लिट्टीयां | ||
− | लहसुनिया चटनी से अघा-अघा | + | लहसुनिया चटनी से |
− | + | अघा-अघा चंभवाती हैं, | |
− | खानाबदोशों , लावारिस लौडों, | + | खानाबदोशों, लावारिस लौडों, |
बहुरुपियों, फक्कडों, हिजडों और गुंडो | बहुरुपियों, फक्कडों, हिजडों और गुंडो | ||
के तहजीबो-करतूतो को | के तहजीबो-करतूतो को | ||
अनायास मुझसे ही क्यों | अनायास मुझसे ही क्यों | ||
अवगत कराती हैं? | अवगत कराती हैं? |
17:21, 20 जुलाई 2010 का अवतरण
बेशर्म कहानियां
ये जो कहानियां हैं
बडी मुंहफट्ट और बदतमीज हैं,
मैं कहीं भी होऊ
मुझे कह ही देती हैं,
मेरी जाती बातें
सरेआम कर देती हैं,
नाती-पूत समेत नंगा कर देती हैं,
चिरकुट पुरखों की
रही-सही अस्मत भी
हंसोढों के आगे
नीलाम कर देती हैं,
पढाकू कुक्कुरों से नुचवाने-छितराने
पंडालों-चौरस्तों पर
धकेलकर-पटक कर
चित्त कर देती हैं
डांटू या फटकारूं
या, बार-बार लतियाऊ
बेकहन-बेहया बाज नहीं आती हैं,
फंटूसी-फटेहाली-फटीचरी
बकवासी किताबी जुबानों से
कभी-भी, कहीं भी
बयां कर देती हैं,
कितना भी दुरदुराऊ
अपनी कुत्तैनी हरकत
दिखा ही जाती हैं
खुफिया कहानियां
हर डगर, हर पहर पर
बांहें फ़ैलाए--सैकडों-हजारों,
सिने से भेंटने
अनचाहे मिल जाती हैं,
बीते-अनबीते दिन-रातें
समेटने-सहेजने का झांसा देकर
अंदरूनी मामलों में
चोरनी इच्छाओं की
और मन के कैदखाने में
कालापानी काट रहे
बेजा खयालों की
घुमंतू कहानियां
दर-ब-दर भटकाकर
बिलावजह थकाती-छकाती हैं,
देहाती इलाकों की गोबरैली झुग्गियों में
खरहर जमीन पर माई के हाथों
पाथी हुई लिट्टीयां
लहसुनिया चटनी से
अघा-अघा चंभवाती हैं,
खानाबदोशों, लावारिस लौडों,
बहुरुपियों, फक्कडों, हिजडों और गुंडो
के तहजीबो-करतूतो को
अनायास मुझसे ही क्यों
अवगत कराती हैं?