"स्वस्थ धुओं का सुख / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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+ | उमरदराज़ लोग धुओं पर ही | ||
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+ | दादी फुंकनी से चूल्हा सुलगाते हुए | ||
+ | धुओं से पेट भर लेती थी | ||
+ | गोइंठे-उपले के अलाव पर | ||
+ | पतीली में दल चुराती हुई | ||
+ | धुओं का सोंधापन उसमें घोलती थी | ||
+ | उसे यकीन था की | ||
+ | धुओं की खुराक | ||
+ | बच्चों को बैदजी से | ||
+ | कोसों दूर रखेगी | ||
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+ | धुएँदार रसोईं में | ||
+ | इत्मिनान से बैठ | ||
+ | पाड़े की चक्की का आटा | ||
+ | सानती हुई | ||
+ | बटुली में भात छोड़ | ||
+ | बाहर घाम की आहट पर | ||
+ | फूटती कलियों को झाँक आकर | ||
+ | वह दोबारा फुंकनी सम्हालती थी | ||
+ | और चूल्हे में जान डाल | ||
+ | भादाभादाती भात निहार | ||
+ | बड़ा चैन पाती थी, | ||
+ | प्रसन्न-मन कई घन मीटर धुआं | ||
+ | सुड़क-सुड़क पी जाती थी | ||
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+ | धुओं ने उसे भली-चंगी रखा | ||
+ | पचासी में भी | ||
+ | नज़र इतनी तेज कि | ||
+ | कहकहे लगाते हुए | ||
+ | एक ही बार में | ||
+ | सुई में धागा डाल देती थी, | ||
+ | दादाजी को दाल-भात परोसते हुए | ||
+ | दो गज दूर से ही | ||
+ | बबुआ के हाथ में अखबार से | ||
+ | सारी खबरें बांच लेती थी | ||
+ | देस-परदेस का नब्ज़ थाम लेती थी | ||
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+ | फुंकनी से आग भड़काती दादी | ||
+ | इतनी झक्क सफ़ेद रोटी पोती थी | ||
+ | कि रोटी के कौर को पकड़ी | ||
+ | माई की अन्गुरियाँ भी | ||
+ | सांवरी लगती थी | ||
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+ | धुओं ने उसे संतानाबे बरस तक | ||
+ | निरोग-आबाद रखा, | ||
+ | उस दिन भी वह धुओं से नहाई | ||
+ | रसोईं से कजरी गुनगुनाते हुए | ||
+ | ओसारे में खटिया पर | ||
+ | आ-लेती थी, | ||
+ | माई ने उसकी मुस्कराती झुर्रियों में | ||
+ | कोई बड़ा अनिष्ट पढ़ लिया था | ||
+ | और झट बाहर बैद रामदीन को | ||
+ | गुहार आई थी | ||
+ | |||
+ | बैदजी आए | ||
+ | नाड़ी थामे रहे | ||
+ | और दादी मुस्कराहटों के बीच | ||
+ | अपनी देह छोड़ गई. |
14:16, 22 जुलाई 2010 का अवतरण
स्वस्थ धुओं का सुख
जब धुएं बीमार नहीं थे
उमरदराज़ लोग धुओं पर ही
पलते थे,
दादी फुंकनी से चूल्हा सुलगाते हुए
धुओं से पेट भर लेती थी
गोइंठे-उपले के अलाव पर
पतीली में दल चुराती हुई
धुओं का सोंधापन उसमें घोलती थी
उसे यकीन था की
धुओं की खुराक
बच्चों को बैदजी से
कोसों दूर रखेगी
धुएँदार रसोईं में
इत्मिनान से बैठ
पाड़े की चक्की का आटा
सानती हुई
बटुली में भात छोड़
बाहर घाम की आहट पर
फूटती कलियों को झाँक आकर
वह दोबारा फुंकनी सम्हालती थी
और चूल्हे में जान डाल
भादाभादाती भात निहार
बड़ा चैन पाती थी,
प्रसन्न-मन कई घन मीटर धुआं
सुड़क-सुड़क पी जाती थी
धुओं ने उसे भली-चंगी रखा
पचासी में भी
नज़र इतनी तेज कि
कहकहे लगाते हुए
एक ही बार में
सुई में धागा डाल देती थी,
दादाजी को दाल-भात परोसते हुए
दो गज दूर से ही
बबुआ के हाथ में अखबार से
सारी खबरें बांच लेती थी
देस-परदेस का नब्ज़ थाम लेती थी
फुंकनी से आग भड़काती दादी
इतनी झक्क सफ़ेद रोटी पोती थी
कि रोटी के कौर को पकड़ी
माई की अन्गुरियाँ भी
सांवरी लगती थी
धुओं ने उसे संतानाबे बरस तक
निरोग-आबाद रखा,
उस दिन भी वह धुओं से नहाई
रसोईं से कजरी गुनगुनाते हुए
ओसारे में खटिया पर
आ-लेती थी,
माई ने उसकी मुस्कराती झुर्रियों में
कोई बड़ा अनिष्ट पढ़ लिया था
और झट बाहर बैद रामदीन को
गुहार आई थी
बैदजी आए
नाड़ी थामे रहे
और दादी मुस्कराहटों के बीच
अपनी देह छोड़ गई.