भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"Kavita Kosh:पंजीकृत सदस्य" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो (Satish Verma)
 
छो (पृष्ठ से सम्पूर्ण विषयवस्तु हटा रहा है)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
छत द्वारा सीमित
 
  
एक बुलबुले के किनारे पर बैठे हुए, ऊष्मित
 
गुमनामी की एक अनन्त लौ जलाते हुए, प्रत्येक हाथ में
 
अपने पूर्वजों की एक एक खोपड़ी लेकर, विवादक
 
पर जवाबी हमले के लिये तुम नाभि-नाड़ी
 
को तोड़ने के अपराध के लिये तैयार हो जाते हो
 
 
बहिष्कृत तुम निर्जल क्षेत्र में, जहाँ चिंकारे जबरदस्त थी
 
छोड़ दिये गये है, झुलसे हुए, एक आँख पर थिगली
 
रबड़ की रानें, गोली खाकर खून के पोखर में
 
लेटे हुए, आतंक के कड़ाह में, सूर्य की चकाचौंध
 
मरमर में दरारे पैदा कर रही थी
 
 
काले जूतों की कृपणता बोरवेल का दर्पण बनती है
 
जो नीले होठों की मुस्कान के रंग को धो डालती है
 
जुगनू सजा के अंधियारे में डूबे जाते हैं
 
 
सतीश वर्मा
 

09:50, 29 जुलाई 2010 के समय का अवतरण