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"मेरी हिम्मत के पौधे को वो आकर सींच जाती है / राजीव भरोल" के अवतरणों में अंतर
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− | + | मेरी हिम्मत के पौधे को वो आकर सींच जाती है, | |
− | + | अकेला जान कर मुझको, हवा तेवर दिखाती है. | |
− | + | इनायत उस मेहरबां की हुई रुक रुक के कुछ ऐसे, | |
− | + | घने पेड़ों से छन छन कर सुबह ज्यों धूप आती है. | |
− | + | दिया हाथों में कासा और सीने में दी ख़ुद्दारी, | |
− | + | बता ऐ जिंदगी ऐसे भला क्यों आज़माती है. | |
− | + | रहन रख आये आखिर हम उसूलों के सभी गहने, | |
− | + | करें क्या भूख आकर रोज़ कुण्डी खटखटाती है. | |
− | + | ये पत्थर तोड़ते बच्चे ज़मीं से हैं जुड़े कितने, | |
− | + | पसीने में घुली मिटटी गले इनको लगाती है. | |
− | है | + | मुझे ही हो गई है तिश्नगी से दोस्ती वरना, |
− | + | कोई बदली मेरी छत पर बरसने रोज़ आती है. | |
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+ | जहाँ में माँ की ममता से घनी और छांव क्या होगी, | ||
+ | मुझे पाला, मेरे बच्चों को भी लोरी सुनाती है. | ||
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22:58, 5 अगस्त 2010 के समय का अवतरण
मेरी हिम्मत के पौधे को वो आकर सींच जाती है,
अकेला जान कर मुझको, हवा तेवर दिखाती है.
इनायत उस मेहरबां की हुई रुक रुक के कुछ ऐसे,
घने पेड़ों से छन छन कर सुबह ज्यों धूप आती है.
दिया हाथों में कासा और सीने में दी ख़ुद्दारी,
बता ऐ जिंदगी ऐसे भला क्यों आज़माती है.
रहन रख आये आखिर हम उसूलों के सभी गहने,
करें क्या भूख आकर रोज़ कुण्डी खटखटाती है.
ये पत्थर तोड़ते बच्चे ज़मीं से हैं जुड़े कितने,
पसीने में घुली मिटटी गले इनको लगाती है.
मुझे ही हो गई है तिश्नगी से दोस्ती वरना,
कोई बदली मेरी छत पर बरसने रोज़ आती है.
जहाँ में माँ की ममता से घनी और छांव क्या होगी,
मुझे पाला, मेरे बच्चों को भी लोरी सुनाती है.