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+ | दिखाती पहले धूप रूप की , | ||
+ | दिखाती फ़िर मट मैली काया ! | ||
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+ | मोह - मुक्त कर देती माया ! | ||
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+ | असम्भाव्य भावी की आशा , | ||
+ | पूर्ति चरम शास्वत आपूर्ति की , | ||
+ | ललक कलक में झलक दिखाती | ||
+ | अनासक्त आसक्तिमुर्ति की ! | ||
+ | अंत सत्य को सुगम बनातू | ||
+ | हरी की अगम अछूती छाया ! | ||
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+ | मन में हरी , रसना पर षड- रस , | ||
+ | अधर धरे मुस्कान सुहानी ! | ||
+ | हरी तक उसे नचाती लाती | ||
+ | हरी की जिसने बात न मानी ! | ||
+ | शकुन दिखा कर अँध तनय को , | ||
+ | हरी - माया ने खेल दिखाया ! | ||
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+ | संग्न्याहत हो या अनात्मारत | ||
+ | आत्म मुग्ध या आत्म प्रपंचक , | ||
+ | पहुँचाया है हर झूठे को , | ||
+ | माया ने झूठे के घर तक ! | ||
+ | लगन लगा कर , मोह मगन को , | ||
+ | मृग लाल , जल निधि पार कराया ! | ||
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+ | अंहकार को निराधार कर , | ||
+ | निरंकार के सम्मुख लाती ! | ||
+ | गिरिजापति का मान बढ़ाने | ||
+ | रति के पति को भस्म कराती ! | ||
+ | नेह लगाया यदि माया से , | ||
+ | निज को खो , हरी - हर को पाया ! | ||
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+ | अपनी समझ लिए हर कोई , | ||
+ | करता रहता तेरी - मेरी ! | ||
+ | वोह अनेक जन मन विलासिनी | ||
+ | एक मात्र श्री हरी की चेरी ! | ||
+ | मैंने इस सहस्ररूपा को , | ||
+ | राममयी कह शीश झुकाया ! | ||
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सँरचना : स्व. पँ. नरेन्द्र शर्मा / सँकलन : लावण्या | सँरचना : स्व. पँ. नरेन्द्र शर्मा / सँकलन : लावण्या |
23:54, 23 जून 2008 का अवतरण
नरेन्द्र शर्मा की रचनाएँ
जन्म | 1913 |
---|---|
निधन | 1989 |
उपनाम | |
जन्म स्थान | जहाँगीरपुर, जिला खुर्जा, उत्तर प्रदेश, भारत |
कुछ प्रमुख कृतियाँ | |
शूल-फूल (1934), कर्ण-फूल (1936), प्रभात-फेरी (1938), प्रवासी के गीत (1939), कामिनी (1943), मिट्टी और फूल (1943), पलाश-वन (1943), हंस माला (1946), रक्तचंदन (1949), अग्निशस्य (1950), कदली-वन (1953), द्रौपदी (1960), प्यासा-निर्झर (1964), उत्तर जय (1965), बहुत रात गये (1967), सुवर्णा (1971), सुवीरा (1973) | |
विविध | |
पंडित नरेन्द्र शर्मा ने हिन्दी-फ़िल्मों के लिये बहुत से गीत लिखे। उनके 17 कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक जीवनी और अनेक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। इसके अलावा उस समय की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं 'सरस्वती'में 1932 में और 'चांद' में 1933 मेँ इनकी प्रारम्भिक रचनाएँ और स्फुट कविताएँ व समीक्षा इत्यादि छपती रही हैं। | |
जीवन परिचय | |
नरेन्द्र शर्मा / परिचय |
- ज्योति कलश छलके / नरेन्द्र शर्मा
- प्रयाग / नरेन्द्र शर्मा
- आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे / नरेन्द्र शर्मा
- तुम भी बोलो, क्या दूँ रानी / नरेन्द्र शर्मा
- तुम रत्न-दीप की रूप-शिखा / नरेन्द्र शर्मा
- हंस माला चल / नरेन्द्र शर्मा
- हर लिया क्यों शैशव नादान / नरेन्द्र शर्मा
- नींद उचट जाती है / नरेन्द्र शर्मा
- चलो हम दोनों चलें वहां / नरेन्द्र शर्मा
- नैना दीवाने एक नहीं माने / नरेन्द्र शर्मा
- मेरे गीत बडे हरियाले / नरेन्द्र शर्मा
- ऐसे हैं सुख सपन हमारे/ नरेन्द्र शर्मा
- ज्योति पर्व : ज्योति वंदना / नरेन्द्र शर्मा
- लौ लगाती गीत गाती,/ नरेन्द्र शर्मा
- फटा ट्वीड का नया कोट / नरेन्द्र शर्मा
- मधु के दिन मेरे गए बीत / नरेन्द्र शर्मा
- सुख-सुहाग की दिव्य-ज्योति से / नरेन्द्र शर्मा
- गँगा, बहती हो क्यूँ ?? / नरेन्द्र शर्मा
- माया / नरेन्द्र शर्मा
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ... निशब्द सदा ,ओ गँगा तुम, बहती हो क्यूँ ?? नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई, निर्ल्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?? इतिहास की पुकार, करे हूँकार, ओ गँगा की धार, निर्बल जन को, सबल सँग्रामी, गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ? विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ... निशब्द सदा ,ओ गँगा तुम, बहती हो क्यूँ ?? नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई, निर्ल्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?? इतिहास की पुकार, करे हूँकार, ओ ग़ँगा की धार, निर्बल जन को, सबल सँग्रामी, गमग्रोग्रामी,बनाती नहूँ हो क्यूँ ? इतिहास की पुकार, करे हूँकार,ओ गँगा तुम, बहती हो क्यूँ ??
अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,
अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो कयूँ ? व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज, व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोडती न क्यूँ ? ओ ग़ँगा की धार, निर्बल जन को, सबल सँग्रामी, गमग्रोग्रामी,बनाती नहूँ हो क्यूँ ?
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ... निशब्द सदा ,ओ गँगा तुम, बहती हो क्यूँ ?? अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिनजन, अज्ञ विहिननेत्र विहिन दिक` मौन हो कयूँ ? व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज, व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोडती न क्यूँ ? विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ... निशब्द सदा ,ऑ गँगा तुम, बहती हो क्यूँ ?? १९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)१९:१४, २७ मई २००८ (UTC)208.102.250.216
माया
दिखाती पहले धूप रूप की , दिखाती फ़िर मट मैली काया ! दुहरी झलक दिखा कर अपनी मोह - मुक्त कर देती माया !
असम्भाव्य भावी की आशा , पूर्ति चरम शास्वत आपूर्ति की , ललक कलक में झलक दिखाती अनासक्त आसक्तिमुर्ति की ! अंत सत्य को सुगम बनातू हरी की अगम अछूती छाया !
मन में हरी , रसना पर षड- रस , अधर धरे मुस्कान सुहानी ! हरी तक उसे नचाती लाती हरी की जिसने बात न मानी ! शकुन दिखा कर अँध तनय को , हरी - माया ने खेल दिखाया !
संग्न्याहत हो या अनात्मारत आत्म मुग्ध या आत्म प्रपंचक , पहुँचाया है हर झूठे को , माया ने झूठे के घर तक ! लगन लगा कर , मोह मगन को , मृग लाल , जल निधि पार कराया !
अंहकार को निराधार कर , निरंकार के सम्मुख लाती ! गिरिजापति का मान बढ़ाने रति के पति को भस्म कराती ! नेह लगाया यदि माया से , निज को खो , हरी - हर को पाया !
अपनी समझ लिए हर कोई , करता रहता तेरी - मेरी ! वोह अनेक जन मन विलासिनी एक मात्र श्री हरी की चेरी ! मैंने इस सहस्ररूपा को , राममयी कह शीश झुकाया !
सँरचना : स्व. पँ. नरेन्द्र शर्मा / सँकलन : लावण्या