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"प्रवासी पुत्र-पुत्रियाँ / अशोक लव" के अवतरणों में अंतर

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23:15, 9 अगस्त 2010 के समय का अवतरण


जन्म लेते हैं पुत्र
जन्म लेती हैं पुत्रियाँ
पलते हैं घर आँगन में
गूँजती हैं किलकारियाँ

पढ़ाते लिखाते
खीजती हैं माँ,खीजते हैं पिता
और देखते ही देखते
दरवाज़े की चौखट छूने लगते हैं पुत्र
माँ जितनी लम्बी दिखने लगती हैं पुत्रियाँ
घिर आती हैं पिता के मुख पर चिंताएं
पुत्रियों के विवाह की
पुत्रों को पैरों पर खड़ा करने की

पुत्रियाँ होती हैं जिम्मेदारियां
'जितना जल्दी निपट जाएँ जिम्मेदारियां
अच्छा रहता है-'वर्षों से हर पीढ़ी सुनती आती है
यह वाक्य
इसलिए जल्दी ब्याह दी जाती हैं पुत्रियाँ
जल्दी घर छोड़ जाती हैं पुत्रियाँ
विदा होती हैं ढेरों आशीषों के साथ
वर्षों से सहेजे कमाए धन से खरीदी वस्तुओं के साथ

मन में सपनों के इन्द्रधनुष संजोये
सुदूर चले जाते हैं पुत्र
नौकरियाँ करने
और दो चार वर्षों बाद ही कर देते हैं
माता-पिता उनका विवाह

यूं हो जाते हैं
घर आँगन से विदा
पुत्र-पुत्रियाँ और
छोड़ जाते हैं जानलेवा सन्नाटा

चुपके चुपके आता है बुढ़ापा
लीलता चला जाता है माता-पिता की देह की उर्जा
संग लाता है
घुटनों के दर्द
कमर दर्द
उच्च रक्तचाप,मधुमेह
उतर आता है आँखों में मोतियाबिंद
बढ़ता जाता है चश्मे का नंबर
सजने लगती हैं मेज़ पर किस्म-किस्म की दवाईयां

नहीं रहती
बच्चों की तरह तरह की तरकारियाँ बनाने की सिफारिशें
नहीं रहते
नए कपड़े सिलवाने,खरीदने की हठ
मेले तमाशे दिखने के अनुरोध
नहीं होती
भाई बहनों की नोक-झोंक
नहीं खरीदी जाती राखियाँ
नहीं रहती भाइयों से रुपये पाने की चाह
नहीं उड़ते होली के रंग
नहीं सजती दीपकों की पंक्तियाँ
नहीं फूटते दीपावली के अनार
नहीं घूमती चक्रियाँ,फुलझड़ियाँ

बच्चों को लेकर
कैसे कैसे सजाते हैं स्वप्न माता-पिता
और हिस्से में आ जाते हैं
उदासियों के ढेर!

आ जाते हैं जब तब बच्चों के फोन
पूछते हैं हाल चाल
करते हैं अपनी पानी गृहस्थी की बातें
अपनी अपनी व्यस्तताओं की बातें
न आ सकने की विवशताओं की बातें
माता-पिता सुनते हैं चुपचाप
बस करते हैं हूँ! हाँ!
फोन रखते ही लेते हैं ठंडी सांस
और मूँद लेते हैं,उदासियों के संग आँखें

माँ ममता के हाथों से छूना चाहती थी पुत्री को
हवा में लहराते रह जाते हैं हाथ
माँ ने सिखाया था बाल संवारना,चोटियाँ बनाना
आते में बराबर पानी मिलाना
तरकारियाँ काटना, बनाना
माँ सूनी आँखों से ताकती है
पुत्री नहीं सन्नाटा दिखाता है,पसरा हुआ
बढ़ता चला जाता है

माँ तलाशती है उधम मचाते पुत्र को
जिसकी हठ पर पकाए थे कितने कितने पकवान
खीर भरे चमचों के संग उढ़ेला था उसने
स्नेह्पूरण ममता को

पिता शुरू से ही कम बोलते थे
नहीं दिखते थे
ह्रदय में उमंगित स्नेह निर्झरों का प्रवाह
अब तो हो गए हैं एकदम खामोश
उनकी आँखों में बना लिया है सूनेपन ने
स्थायी बसेरा

प्रवासी पक्षियों के सामान
जब तब आ जाते हैं पुत्र-पुत्रियाँ
उनके आते ही आ जाते हैं
होली-दीपावली के पर्व
जगमगाने लगता है दीपकों का प्रकाश
जलने बुझने लगते हैं रंग-बिरंगे बल्ब
करने लगते हैं पटाखे शोर
चुन्धियाँ देती हैं आतिशबाज़ियाँ
चीर देती है सन्नाटा
गूँजने लगता है कोना कोना

प्रवासी पक्षी मौसम बदलते ही उड़ जाते हैं
चले जाते हैं प्रवासी पुत्र-पुत्रियाँ
रहकर दो-चार दिन!

आकाश में कतारों की कतारों में उड़ते हैं
जब-जब प्रवासी पक्षी
माता-पिता की उदास आँखों में उतर आती हैं आशाएँ
आते होंगे पुत्र
आती होंगी पुत्रियाँ