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"बाल काण्ड / भाग ४ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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<br>चौ०-आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
 
<br>चौ०-आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
<br>जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥
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<br>जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥१॥
 
<br>मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी॥
 
<br>मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी॥
<br>कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥
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<br>कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥२॥
 
<br>गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
 
<br>गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
<br>उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा॥
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<br>उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा॥३॥
 
<br>जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
 
<br>जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
<br>समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥
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<br>समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥४॥
 
<br>दो०-नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
 
<br>दो०-नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
 
<br>बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥१७२॥
 
<br>बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥१७२॥
 
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<br>चौ०-उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
 
<br>चौ०-उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
<br>मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥
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<br>मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥१॥
 
<br>बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
 
<br>बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
<br>भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥
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<br>भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥२॥
 
<br>परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
 
<br>परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
<br>बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥
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<br>बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥३॥
 
<br>भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
 
<br>भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
<br>भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी॥
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<br>भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी॥४॥
 
<br>दो०-बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
 
<br>दो०-बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
 
<br>जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥१७३॥
 
<br>जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥१७३॥
 
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<br>चौ०-छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
 
<br>चौ०-छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
<br>ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥
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<br>ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥१॥
 
<br>संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
 
<br>संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
<br>नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥
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<br>नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥२॥
 
<br>बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
 
<br>बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
<br>चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥
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<br>चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥३॥
 
<br>तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
 
<br>तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
<br>सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥
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<br>सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥४॥
 
<br>दो०-भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
 
<br>दो०-भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
 
<br>किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥१७४॥
 
<br>किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥१७४॥
 
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<br>चौ०-अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥
 
<br>चौ०-अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥
<br>सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिरचत हंस काग किय जेहीं॥
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<br>सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिरचत हंस काग किय जेहीं॥१॥
 
<br>उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥
 
<br>उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥
<br>तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥
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<br>तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥२॥
 
<br>घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होइ लराई॥
 
<br>घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होइ लराई॥
<br>जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥
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<br>जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥३॥
 
<br>सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥
 
<br>सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥
<br>रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥
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<br>रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥४॥
 
<br>दो०-भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम।
 
<br>दो०-भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम।
 
<br>धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥।१७५॥
 
<br>धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥।१७५॥
 
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<br>चौ०-काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥
 
<br>चौ०-काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥
<br>दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥
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<br>दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥१॥
 
<br>भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥
 
<br>भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥
<br>सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥
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<br>सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥२॥
 
<br>नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥
 
<br>नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥
<br>रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥
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<br>रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥३॥
 
<br>कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥
 
<br>कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥
<br>कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥
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<br>कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥४॥
 
<br>दो०-उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
 
<br>दो०-उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
 
<br>तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥१७६॥
 
<br>तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥१७६॥
 
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<br>चौ०-कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
 
<br>चौ०-कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
<br>गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥
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<br>गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥१॥
 
<br>करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
 
<br>करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
<br>हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥
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<br>हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥२॥
 
<br>एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
 
<br>एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
<br>पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥
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<br>पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥३॥
 
<br>जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
 
<br>जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
<br>सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥
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<br>सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥४॥
 
<br>दो०-गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
 
<br>दो०-गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
 
<br>तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥१७७॥
 
<br>तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥१७७॥
 
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<br>चौ०-तिन्हहि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
 
<br>चौ०-तिन्हहि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
<br>मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥
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<br>मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥१॥
 
<br>सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
 
<br>सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
<br>हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥
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<br>हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥२॥
 
<br>गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
 
<br>गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
<br>सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा॥
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<br>सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा॥३॥
 
<br>भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
 
<br>भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
 
<br>तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥
 
<br>तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥
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<br>चौ०-रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥
 
<br>चौ०-रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥
<br>अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥
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<br>अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥१॥
 
<br>दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥
 
<br>दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥
<br>देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥
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<br>देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥२॥
 
<br>फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
 
<br>फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
<br>सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥
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<br>सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥३॥
 
<br>जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे॥
 
<br>जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे॥
<br>एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥
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<br>एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥४॥
 
<br>दो०-कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
 
<br>दो०-कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
 
<br>मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥१७९॥
 
<br>मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥१७९॥
 
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<br>चौ०-सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥
 
<br>चौ०-सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥
<br>नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥
+
<br>नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥१॥
 
<br>अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥
 
<br>अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥
<br>करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा॥
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<br>करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा॥२॥
 
<br>जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥
 
<br>जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥
<br>समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥
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<br>समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥३॥
 
<br>बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
 
<br>बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
<br>जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥
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<br>जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥४॥
 
<br>दो०-कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
 
<br>दो०-कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
 
<br>एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥१८०॥
 
<br>एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥१८०॥
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<br>दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥
 
<br>दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥
 
<br>सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती॥
 
<br>सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती॥
<br>सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥
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<br>सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥२॥
 
<br>सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
 
<br>सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
<br>ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥
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<br>ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥३॥
 
<br>तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
 
<br>तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
 
<br>द्विजभोजन मख होम सराधा॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥
 
<br>द्विजभोजन मख होम सराधा॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥
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<br>जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥
 
<br>जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥
 
<br>तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥
 
<br>तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥
<br>एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥
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<br>एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥२॥
 
<br>चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥
 
<br>चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥
<br>रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥
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<br>रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥३॥
 
<br>दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
 
<br>दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
 
<br>पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥
 
<br>पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥
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<br>प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥
 
<br>प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥
 
<br>देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
 
<br>देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
<br>करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥
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<br>करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥२॥
 
<br>जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
 
<br>जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
<br>जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥
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<br>जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥३॥
 
<br>सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई॥
 
<br>सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई॥
 
<br>नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना॥
 
<br>नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना॥

15:22, 28 जून 2007 का अवतरण


चौ०-सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥
जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥१॥
मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ॥
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनती प्रभु मोरी॥२॥
सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥३॥
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥४॥
सो०-तहँ करि भोग बिसाल तात गएँ कछु काल पुनि।
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥१५१॥

चौ०-इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥१॥
जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥२॥
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥३॥
दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥४॥
दो०-यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥१५२॥
मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम


चौ०-सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥
बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥१॥
धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥२
राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥३॥
भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती ॥
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥४॥
दो०-जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥१५३॥

चौ०-नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥
सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥१॥
सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥२॥
बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥
जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआईं॥३॥
सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें॥
सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥४॥
दो०-स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥१५४॥

चौ०-भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥१॥
सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥२॥
भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥
दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना॥३॥
नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए॥४॥
दो०-जहँ लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग॥१५५॥

चौ०-हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥१
चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥२
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
बड़ बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं॥३
कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥४॥
दो०-नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥१५६॥

चौ०-आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥१॥
तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग लागा॥२॥
गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥३॥
कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥
अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥४॥
दो०-खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥१५७॥

चौ०-फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥१॥
समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥२॥
रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा॥३॥
राउ तृषित नहिं सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥४॥
दो०-भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ।
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥१५८॥

चौ०-गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥१॥
को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥२॥
नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखउँ पद आई॥३॥
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥४॥
दो०- निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान।
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥१५९(क)॥
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥१५९(ख)॥

चौ०-भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥१॥
पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥
मोहि मुनीस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥२॥
तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥३॥
समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥
सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥४॥

दो०-कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत।
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत॥१६०॥

चौ०-कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥
सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥१॥
तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥२॥
जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥३॥
सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥४॥
दो०-अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥१६१(क)॥
सो०-तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥१६१(ख)

चौ०-तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥१॥
तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥२॥
जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥३॥
नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु नाई॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥४॥
दो०-आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥१६२॥

चौ०-जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥
तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्राता॥१॥
तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥२॥
करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥
उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥३॥
सुनि महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयऊ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥४॥
सो०-सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥१६३॥
नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥१॥
देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥
उपजि परी ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥२॥
अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥३॥
कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥४॥
दो०-जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥१६४॥

चौ०-कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥१॥
तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥२॥
चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहि कवनेहुँ काला॥३॥
हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना॥४॥
दो०-एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि।
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥१६५॥

चौ०-तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥
छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥१॥
यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥
आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥२॥
सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥३॥
जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥
एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥४॥
दो०-होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥१६६॥

चौ०-सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥
अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥१॥
मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥२॥
जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥३॥
बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥
जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥४॥
दो०- अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥१६७॥

चौ०-जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥१॥
अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥२॥
जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥३॥
पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥४॥
दो०-नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करिब जेवनार॥१६८॥

चौ०-एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥
करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥१॥
और एक तोहि कहऊँ लखाऊ। मैं एहि बेष न आउब काऊ॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥२॥
तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परबाना॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥३॥
गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता॥४॥
दो०-मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥१६९॥

चौ०-सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥१॥
कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥२॥
तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥
प्रथमहि भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥३॥
तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥
जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥४॥
दो०-रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥१७०॥

चौ०-तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥१॥
अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥२॥
कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई॥
तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥३॥
भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥
नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥४॥
दो०-राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥१७१॥

चौ०-आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥१॥
मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी॥
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥२॥
गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा॥३॥
जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥४॥
दो०-नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥१७२॥

चौ०-उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥१॥
बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥२॥
परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥३॥
भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी॥४॥
दो०-बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥१७३॥

चौ०-छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥१॥
संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥२॥
बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥३॥
तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥४॥
दो०-भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥१७४॥

चौ०-अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिरचत हंस काग किय जेहीं॥१॥
उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥२॥
घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होइ लराई॥
जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥३॥
सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥४॥
दो०-भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम।
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥।१७५॥

चौ०-काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥१॥
भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥२॥
नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥
रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥३॥
कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥
कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥४॥
दो०-उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥१७६॥

चौ०-कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥१॥
करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥२॥
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥३॥
जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥४॥
दो०-गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥१७७॥

चौ०-तिन्हहि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥१॥
सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥२॥
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा॥३॥
भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥
दो०-खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥१७८(क)॥
हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥१७८(ख)॥

चौ०-रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥१॥
दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥२॥
फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥३॥
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे॥
एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥४॥
दो०-कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥१७९॥

चौ०-सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥
नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥१॥
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥
करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा॥२॥
जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥
समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥३॥
बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥४॥
दो०-कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥१८०॥

चौ०-कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥
सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥२॥
सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥३॥
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
द्विजभोजन मख होम सराधा॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥
दो०-छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥१८१॥

चौ०-मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा॥
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥
तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥२॥
चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥३॥
दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥
रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥
किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥
आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥
दो०-भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥१८२(क)॥
देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि।
जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि॥१८२(ख)॥

चौ०-इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥
देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥२॥
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥३॥
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना॥

छं०-जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥

सो०-बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥१८३॥
मासपारायण, छठा विश्राम

चौ०-बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही॥
सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥

छं०-सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥

सो०-धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु।
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥१८४॥

चौ०-बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ॥
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥
अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना॥
दो०-सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥१८५॥

छं०-जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा॥
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥
दो०-जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥१८६॥

चौ०-जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥
कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा॥
तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥
गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥
तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥
दो०-निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥१८७॥

चौ०-गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ।
जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥
बनचर देह धरी छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥
गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥
अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी॥
दो०-कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥१८८॥

चौ०-एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥
सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥
जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥
दो०-तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ॥
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥१८९॥

तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥
अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥
कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥
एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥
मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीं॥
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥
दो०-जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥१९०॥

चौ०-नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥
सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥
गगन बिमल संकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥
बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥
दो०-सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥१९१॥

छं०-भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥

दो०-बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥१९२॥

चौ०-सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आईं सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा॥
जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥
गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥
दो०-नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥१९३॥

चौ०-ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥
बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाईं। सहज संगार किएँ उठि धाईं॥
कनक कलस मंगल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥
करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥
मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥
सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥
दो०-गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥१९४॥

चौ०-कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥
वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥
अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥
अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी॥
मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥
भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥
कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥
दो०-मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥१९५॥

चौ०-यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना॥
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥
औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
काक भुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥
परमानंद प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥
तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥
दो०-मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस।
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥१९६॥

चौ०-कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥
करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥
जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥
बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥
दो०-लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥१९७॥

चौ०-धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥
बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥
भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥
हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥
दो०-ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥१९८॥

चौ०-काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥
अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥
रेख कुलिस ध्वज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा॥
भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥
कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥
पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा॥
दो०-सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत।
दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥१९९॥

चौ०-एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥
रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥
भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥
एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै॥
दो०-प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥२००॥