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<br>छं०-जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
<br>गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता॥१॥कंता॥
<br>पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
<br>जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥१॥
<br>सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
<br>जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
<br>मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा॥३॥सुरजूथा॥३॥
<br>सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
<br>जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
<br>ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा॥२॥
<br>तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
<br>नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥अवतरिहउँ॥३॥
<br>हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥
<br>गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥जुड़ाना॥४॥
<br>तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥
<br>दो०-निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
<br>गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥२॥
<br>गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
<br>यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥राखा॥३॥
<br>अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
<br>धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी॥सारँगपानी॥४॥
<br>दो०-कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
<br>पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥१८८॥
<br>धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥२॥
<br>सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
<br>भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥लीन्हें॥३॥
<br>जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
<br>यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥बनाई॥४॥
<br>दो०-तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ॥
<br>परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥१८९॥
<br>कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥२॥
<br>एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
<br>जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥छाए॥३॥
<br>मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीं॥
<br>सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥भयऊ॥४॥
<br>दो०-जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
<br>चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥१९०॥
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