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'कहां गए--
अंधे रास्तों पर
कहकहेबाज उजले लोग ?'
चम्पक वृक्षों पर
चुटकले सुनाने वाले विहंग मित्र
अपनी मायूसियों से बाहर निकल ,
नहीं बुला पा रहे हैं
--अपनी मिन्नतों-मन्नतों से --
छमकती देवी चम्पावती को
देवदारुओं के पाँव
उखड़ चुके हैं जमीन से,
लेकिन, शिलाओं पर टिके हुए हैं ,
डगमगा-डगमगाकर
अपनी नाखूनी जड़ों से
तीरों की तरह धंसी हुई हैं
उनकी देह पर,
उनके पांवों के नीचे गहराई में
मिथक बन चुके झरनों पर
भेड़ियों की छायाएं
अभी भी निरीह शिकार जोह रही हैं
और जैसे देख रही हैं सपने
झुण्ड में आकर प्यास-बुझाते हिरणों के ,
जिन पर वे टूट पड़ेंगे
गुम्फित झाड़ियों से अट्टहास निकलकर.