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"ख़ुश्बू भरे वो बाग़ गुलाबों के खो गए.. / श्रद्धा जैन" के अवतरणों में अंतर

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क़िस्से वो इंक़लाबी, किताबों के खो गए
 
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मिलते नहीं निशान, नवाबों के खो गए
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उलझन में घिर गया है, हर इक शख़्स शहर का  
 
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अब सिलसिले भी शोख़, जवाबों के खो गए
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बच्चे जो खिलखिला के हँसे, तो मुझे लगा
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बच्चे जो खिलखिला के हँसे तो मुझे लगा
सुलगे हुए जो दिन थे, अज़ाबों के खो गए
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सुलगे हुए जो दिन थे अज़ाबों के, खो गए
 
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20:50, 12 अगस्त 2010 का अवतरण

आँखों में गुलसितान थे, ख़्वाबों के, खो गए
ख़ुश्बू भरे बदन वो, गुलाबों के खो गए

हर बोलती ज़बान, कहीं जा के सो गई
क़िस्से वो इंक़लाबी, किताबों के खो गए

तक़दीर वारिसों को भी ग़ुरबत में ले गई
मिलते नहीं निशान नवाबों के, खो गए

उलझन में घिर गया है, हर इक शख़्स शहर का
अब सिलसिले भी शोख़ जवाबों के खो गए

बच्चे जो खिलखिला के हँसे तो मुझे लगा
सुलगे हुए जो दिन थे अज़ाबों के, खो गए