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<br>चौ०-कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥
<br>कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥सयानी॥१॥
<br>ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥
<br>मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥मारे॥२॥
<br>स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
<br>कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥पानी॥३॥
<br>गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥
<br>लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥माता॥४॥
<br>दो०-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
<br>आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥२२१॥
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<br>चौ०-देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
<br>जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥बिबाहू॥१॥
<br>कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥
<br>सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥भजई॥२॥
<br>कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता॥
<br>तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥संदेहू॥३॥
<br>जौं बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
<br>सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥नातें॥४॥
<br>दो०-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
<br>यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥२२२॥
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<br>चौ०-बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का॥
<br>कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा॥किसोरा॥१॥
<br>सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
<br>सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥अहहीं॥२॥
<br>परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
<br>सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥भोरें॥३॥
<br>जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
<br>तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानीं॥बानीं॥४॥
<br>दो०-हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।
<br>जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥२२३॥
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<br>चौ०-पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
<br>अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥सँवारी॥१॥
<br>चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥
<br>तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥बिलासा॥२॥
<br>कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
<br>तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥बनाए॥३॥
<br>जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी॥
<br>पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥रचना॥४॥
<br>दो०-सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
<br>तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥२२४॥
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<br>चौ०-सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥
<br>निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥भाई॥१॥
<br>राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥
<br>लव निमेष महुँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥माया॥२॥
<br>भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥
<br>कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥माहीं॥३॥
<br>जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥
<br>कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई॥बरिआई॥४॥
<br>दो०-सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
<br>गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥२२५॥
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<br>चौ०-निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥
<br>कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥सिरानी॥१॥
<br>मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥
<br>जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥बिरागी॥२॥
<br>तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
<br>बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥कीन्ही॥३॥
<br>चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥
<br>पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥जलजाता॥४॥
<br>दो०-उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान॥
<br>गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥२२६॥
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