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<br>चौ०-सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
<br>समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥भाई॥१॥
<br>भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥
<br>लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥बिताना॥२॥
<br>नव पल्लव फल सुमन सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए॥
<br>चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥मोरा॥३॥
<br>मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
<br>बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥भृंगा॥४॥
<br>दो०-बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।
<br>परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥२२७॥
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<br>चौ०-चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन। मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥<br>तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥पठाई॥१॥
<br>संग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी॥
<br>सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥मोहा॥२॥
<br>मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥
<br>पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥मागा॥३॥
<br>एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥
<br>तेहिं दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥आई॥४॥
<br>दो०-तासु दसा देखी सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
<br>कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन॥२२८॥
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<br>चौ०-देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥
<br>स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥बानी॥१॥
<br>सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥
<br>एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥काली॥२॥
<br>जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी॥
<br>बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥जोगू॥३॥
<br>तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥
<br>चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥कोई॥४॥
<br>दो०-सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत॥
<br>चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥२२९॥
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<br>चौ०-कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
<br>मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही॥मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥कीन्ही॥१॥
<br>अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
<br>भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥दिगंचल॥२॥
<br>देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
<br>जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥देखाई॥३॥
<br>सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥
<br>सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥बिदेहकुमारी॥४॥
<br>दो०-सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।
<br>बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥२३०॥
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<br>चौ०-तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥
<br>पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई॥फुलवाई॥१॥
<br>जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
<br>सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥भ्राता॥२॥
<br>रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
<br>मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥हेरी॥३॥
<br>जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥
<br>मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥माहीं॥४॥
<br>दो०-करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
<br>मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥२३१॥
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