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<br>चौ०-सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥
<br>लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥होई॥१॥
<br>हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
<br>पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥साला॥२॥
<br>रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥
<br>चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥नारी॥३॥
<br>देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥
<br>तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु सब काहू॥काहू॥४॥
<br>दो०-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
<br>उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥२४०॥
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<br>चौ०-राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
<br>गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥सरीरा॥१॥
<br>राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
<br>जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥तैसी॥२॥
<br>देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
<br>डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥भारी॥३॥
<br>रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा॥
<br>पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥सुखदाई॥४॥
<br>दो०-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
<br>जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥२४१॥
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<br>चौ०-बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
<br>जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥जैसें॥१॥
<br>सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
<br>जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥
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<br>चौ०-सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
<br>सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥के॥१॥
<br>चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी॥
<br>कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥
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<br>चौ०-कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे॥
<br>पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥छाए॥१॥
<br>देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
<br>हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥
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<br>चौ०-प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे॥
<br>असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥नाहीं॥१॥
<br>बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
<br>अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥
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<br>चौ०-ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
<br>सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥सीता॥१॥
<br>जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
<br>सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥
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<br>चौ०-सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥
<br>उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥अनुरागीं॥१॥
<br>सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
<br>जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥
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<br>चौ०-चलीं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥
<br>सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥भारी॥१॥
<br>भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥
<br>रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥
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<br>चौ०-राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥
<br>सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥माहीं॥१॥
<br>हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
<br>बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू॥
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<br>चौ०-नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥
<br>रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥सिधारे॥१॥
<br>सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥
<br>त्रिभुवन जय समेत बैदेही॥बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥
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