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<br>जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥१॥
<br>सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
<br>जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥प्रकासा॥२॥
<br>हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
<br>रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥कथनीया॥३॥
<br>उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
<br>एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥कोसलराऊ॥४॥
<br>दो०-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
<br>सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥२४२॥
<br>सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥१॥
<br>चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी॥
<br>कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥बोला॥२॥
<br>कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
<br>भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥लजाहीं॥३॥
<br>पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥
<br>रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥सीवाँ॥४॥
<br>दो०-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
<br>बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥२४३॥
<br>पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥१॥
<br>देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
<br>हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥जाई॥२॥
<br>करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
<br>जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥कोऊ॥३॥
<br>निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
<br>भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥लहेऊ॥४॥
<br>दो०-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
<br>मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥२४४॥
<br>असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥१॥
<br>बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
<br>अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥गवाँई॥२॥
<br>बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥
<br>तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥बिआहा॥३॥
<br>एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
<br>यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥सयाने॥४॥
<br>सो०-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के॥
<br>जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥२४५॥
<br>सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥१॥
<br>जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
<br>सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥बासी॥२॥
<br>सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
<br>करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥पावा॥३॥
<br>अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥
<br>देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥गाना॥४॥
<br>दो०-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।
<br>चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं॥२४६॥
<br>उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥१॥
<br>सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
<br>जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥कमनीया॥२॥
<br>गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥
<br>बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥बैदेही॥३॥
<br>जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छपु सोई॥
<br>सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥मारू॥४॥
<br>दो०-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
<br>तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥२४७॥
<br>सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥१॥
<br>भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥
<br>रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥नारी॥२॥
<br>हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई॥
<br>पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥भुआला॥३॥
<br>सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥
<br>मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥पाई॥४॥
<br>दो०-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि॥
<br>लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥२४८॥
<br>सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥१॥
<br>हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
<br>बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू॥बिबाहू॥२॥
<br>जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू॥
<br>एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥जोगू॥३॥
<br>तब बंदीजन जनक बोलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥
<br>कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥थोरा॥४॥
<br>दो०-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
<br>पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥२४९॥
<br>रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥१॥
<br>सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥
<br>त्रिभुवन जय समेत बैदेही॥बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥तेही॥२॥
<br>सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥
<br>परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई॥नाई॥३॥
<br>तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥
<br>जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥जाहीं॥४॥
<br>दो०-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।
<br>मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥२५०॥
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