भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मुफ़लिसी थी तो उसमें भी एक शान थी (प्रेमचन्द) / नज़ीर बनारसी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नज़ीर बनारसी }} {{KKCatGhazal}} <poem> '''प्रेमचन्द''' मुफ़लिसी …) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
जो बज़ाहिर शिकस्त-सा इक साज़ था | जो बज़ाहिर शिकस्त-सा इक साज़ था | ||
− | वह करोड़ों दुखे-दिल की आवाज़ | + | वह करोड़ों दुखे-दिल की आवाज़ था |
+ | |||
+ | राह में गिरते-पड़ते सँभलते हुए | ||
+ | साम्राजी से तेवर बदलते हुए | ||
+ | |||
+ | आ गए ज़िन्दगी के नए मोड़ पर | ||
+ | मौत के रास्ते से टहलते हुए | ||
+ | |||
+ | बनके बादल उठे, देश पर छा गए | ||
+ | प्रेम रस, सूखे खेतों पे बरसा गए | ||
+ | |||
+ | अब वो जनता की सम्पत हैं, धनपत नहीं | ||
+ | सिर्फ़ दो-चार के घर की दौलत नहीं | ||
09:42, 16 अगस्त 2010 का अवतरण
प्रेमचन्द
मुफ़लिसी थी तो उसमें भी एक शान थी
कुछ न था, कुछ न होने पे भी आन थी
चोट खाती गई, चोट करती गई
ज़िन्दगी किस क़दर मर्द मैदान थी
जो बज़ाहिर शिकस्त-सा इक साज़ था
वह करोड़ों दुखे-दिल की आवाज़ था
राह में गिरते-पड़ते सँभलते हुए
साम्राजी से तेवर बदलते हुए
आ गए ज़िन्दगी के नए मोड़ पर
मौत के रास्ते से टहलते हुए
बनके बादल उठे, देश पर छा गए
प्रेम रस, सूखे खेतों पे बरसा गए
अब वो जनता की सम्पत हैं, धनपत नहीं
सिर्फ़ दो-चार के घर की दौलत नहीं
<ref>माशूक</ref>
शब्दार्थ
<references/>