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19:01, 27 अगस्त 2010
<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png|middle]]</td>
<td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td> '''शीर्षक : काजू भुनी पलेट मेंपर आँखें नहीं भरीं<br> '''रचनाकार:''' [[अदम गोंडवीशिवमंगल सिंह ‘सुमन’]]</td>
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<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास मेंकितनी बार तुम्हें देखा उतरा है रामराज विधायक निवास में पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैतइतना असर है ख़ादी के उजले लिबास मेंपर आँखें नहीं भरीं।
आजादी का वो जश्न मनायें सीमित उर में चिर-असीम सौंदर्य समा न सका बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग मन रोके नहीं रुका यों तो किस तरहकई बार पी-पीकर जी भर गया छका एक बूँद थी, किंतु, कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी। कितनी बार तुम्हें देखा जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश मेंआँखें नहीं भरीं।
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा देंशब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास कण-कण मेंबिखरी मिलन साँझ की लाज सुनहरी जनता ऊषा बन निखरी, हाय, गूँथने के पास एक ही चारा है बगावतक्रम में यह बात कह रहा हूँ मैं होशोकलिका खिली, झरी भर-हवास मेंभर हारी, किंतु रह गई रीती ही गगरी। कितनी बार तुम्हें देखा पर आँखें नहीं भरीं।
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