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"मादरे-हिन्द से / नज़ीर बनारसी" के अवतरणों में अंतर

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(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नज़ीर बनारसी }} {{KKCatKavita‎}} <poem> क्‍यों न हो नाज़ ख़ाकस…)
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00:46, 30 अगस्त 2010 का अवतरण

क्‍यों न हो नाज़ ख़ाकसारी पर

              तेरे क़दमों की धूल हैं हम लोग

आज आये हैं तेरे चरणों में

              तू जो छू दे तो फूल हैं हम लोग

देश भगती भी हम पे नाज़ करे

              हम को आज ऐसी देश भगती दे

तेरी जानिब है दुश्‍मनों की नज़र

              अपने बेटों को अपनी शक्‍ती दे

     मां हमें रण में सुर्ख़रू रखना

     अपने बेटों की आबरू रखना

 

तूने हम सब की लाज रख ली है

              देशमाता तुझे हज़ारों सलाम

चाहिये हमको तेरा आशीर्वाद

              शस्‍त्र उठाते हैं ले‍के तेरा नाम

लड़खड़ायें अगर हमारे क़दम

              रण में आकर संभालना माता

बिजलियां दुश्‍मनों के दिल पे गिरें

              इस तरह से उछालना माता

         मां हमें रण में सुर्ख़रू रखना

         अपने बेटों की आबरू रखना

हो गयी बन्‍द आज जिनकी जुबां

              कल का इतिहास उन्‍हें पुकारेगा

जो बहादुर लहू में डूब गये

              वक़्त उन्‍हें और भी उभारेगा

सांस टूटे तो ग़म नहीं माता

              जंग में दिल न टूटने पाये

हाथ कट जायें जब भी हाथों से

              तेरा दामन न छूटने पाये

मां हमें रण में सुर्ख़ रखना

     अपने बेटें की आबरू रखना