भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"पेड़ और भेड़ / ओम पुरोहित ‘कागद’" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो (नया पृष्ठ: जब भी मेरी आंखों में उगते है नन्हे-नन्हे हरे-हरे पेड़ मेरे मन को …) |
(कोई अंतर नहीं)
|
20:26, 30 अगस्त 2010 का अवतरण
जब भी मेरी आंखों में उगते है नन्हे-नन्हे हरे-हरे पेड़ मेरे मन को भीतरी कोने से आ सब तहस-नहस कर डालती है कमबख्त एक वहशी भेड़।
तब मैं हरियाली के तमाम सपने भूल कर पालने लगता हूं वह स्वप्नघाती भेड़ और फिर कहीं भी कभी भी यहां तक कि सम्भावनाओं तक में नहीं उग पाता कोई साध पुरता मरियल सा भी हरियल सा भी हरियल कोई पेड़।
कौन बचना चाहिये
पेड़ या भेड़?
यहीं सवाल
मुझे कचोटता रहता है