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"होते रहेंगे बहरे ये कान जाने कब तक / नागार्जुन" के अवतरणों में अंतर

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(१९७६ में रचित,'खिचड़ी विप्लव देखा हमने' नामक कविता-संग्रह से )
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(१९७६ में रचित)

13:38, 22 जनवरी 2008 का अवतरण


होते रहेंगे बहरे ये कान जाने कब तक

ताम-झाम वाले नकली मेघों की दहाड़ में

अभी तो करुणामय हमदर्द बादल

दूर, बहुत दूर, छिपे हैं ऊपर आड़ में


यों ही गुजरेंगे हमेशा नहीं दिन

बेहोशी में, खीझ में, घुटन में, ऊबों में

आएंगी वापस ज़रूर हरियालियां

घिसी-पिटी झुलसी हुई दूबों में


(१९७६ में रचित)