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"कविता के सदंर्भ में / ओम पुरोहित ‘कागद’" के अवतरणों में अंतर

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12:23, 31 अगस्त 2010 के समय का अवतरण

जब तक आप
सोफों में धँस कर
दारू से डक कर
कविता के होने
या न होने की
बात करते रहेंगे
आप की बात
कविता के संदर्भ में
सार्थक बयान नहीं हो सकती।

मैं मानता हूं
तुम प्रतिदिन
रंगते हो
अखबार के कॉलम
मांडते हो
कविता की परिभाषा
मगर सोचो मेरे दोस्त
इस में
कविता की परिभाषा नहीं
तुम्हारी मजबूरी है
जो सिखाती है तुम्हें
रोटी की परिभाषा
इसीलिए
कविता की परिभाषा के लिए
चलाई गई
तुम्हारी कलम
ढूंढ़ती रहती है
और बदलती रहती है
नित नई परिभाषा
ज्यो ढूंढ़ती है
एक जगली गाय
प्रतिदिन
एक नया खेत
चरने के लिए।


इस पर यदि आप
बयान जारी करते है
बोतल के तरल का गरल पी
जिस प्रकार सुबह
पेशाब के बाद
मैदा साफ़ कर
ताजा दम हो जाते है आप
उसी तरह
गोष्ठी के बाद
आपके विचारो की कै कर
आपकी फहरिश्ते से
कम हो जाते है लोग

किसी असहाय अबला के
पेट मे पलते
शिशु द्वारा
अपनी मा के लिए
पौष्‍टिक आहार की मांग सुन
कविता के द्वार खोल
उसके बयान को
एक विशिष्‍ट अलंकार
एक विशिष्‍ट रस
एक विशिष्‍ट शिल्प
एक विशिष्‍ट छंद
एक विशिष्‍ट भाषा का
सम्मान दे
ताजा दम हो जाते है
और आपके बयान
उस कविता की चौखट पर
महाप्रयाण कर जाते है।

कविता की परिभाषा
दर्शन और कल्पना में
आप को हरगिज नहीं मिलेगी
दम तोड़ती सदी के
पैताने बैठो
और सुनो
उस के बयान
कविता की परिभाषा
खुद-ब-खुद
आपके सामने चली आएगी
और फिर वह
आपके दर्शन
आपकी कल्पना के
सारे तर्क काटती
आपकी ही कलम से
उतर कर
एक बयान होती चली जाएगी।