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|रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव
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<poem>
'''उम्मीद का आम्रतरु'''
 उम्मीद का आम्रतरू  हर किसी की मन- मृत्तिका
इतनी उपजाऊ है कि
लहलहाई जा सकती है इस पर
उम्मीद को पाल-पोसकर
झकड़दार -फलदार बनाने में
भोथरा जाती है उम्र की धार,
बंद मुट्ठी की रेत हो जाती है
इस पर चढ़कर
फलों को तोड़ने की क्षमता
बहुत प्राय: अनापके अनपके ही रह गए फलों को
मार जाता है विनाश का पाला,
स्वत: ही सूखकर
निष्पात-निष्फल हो जाती है यह,
इच्छाओं के मानसून बरसते रह जाते हैं
जबकि पतझड़ इसे
घसीटकर ले जाता है --
विषाद के मरुस्थल में
इसकी चिता सजाने
खाने की भूख लरजती ही रहेगी,
कौन मानेगा मेरा कहा कि
बाज आ जाओ --इसकी छाया में जीने से</poem>