"कश्मीर होता जा रहा हूँ/ मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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जिस पेड़ की शाख पर | जिस पेड़ की शाख पर | ||
अपनी कमर टिकाई, | अपनी कमर टिकाई, | ||
वह जमीन से उखड़कर | वह जमीन से उखड़कर | ||
− | जड़हीन था | + | जड़हीन था |
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जिस पत्थर पर सुस्ताने बैठा | जिस पत्थर पर सुस्ताने बैठा | ||
− | वह हवा में कंपकंपाते हुए तैर रहा था | + | वह हवा में कंपकंपाते हुए तैर रहा था |
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जिस टूटते सितारे से | जिस टूटते सितारे से | ||
उर्ध्वमुख मन्नते मांग रहा था, | उर्ध्वमुख मन्नते मांग रहा था, | ||
− | उसका निशाना सीधा मेरी ओर था | + | उसका निशाना सीधा मेरी ओर था |
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चलते-चलते थक-हारकर | चलते-चलते थक-हारकर | ||
जिस राहगीर की बांहों की बैसाखी थामी | जिस राहगीर की बांहों की बैसाखी थामी | ||
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निस्तेज हुआ जा रहा हूँ, | निस्तेज हुआ जा रहा हूँ, | ||
सारी ऊर्जाएं मेरे ऊपर से बह जा रही हैं | सारी ऊर्जाएं मेरे ऊपर से बह जा रही हैं | ||
− | मेरा बल मेरी पकड़ से कश्मीर होता जा रहा है, | + | मेरा बल मेरी पकड़ से |
+ | कश्मीर होता जा रहा है, | ||
मैं न तो कोई राष्ट्र बन पा रहा हूँ | मैं न तो कोई राष्ट्र बन पा रहा हूँ | ||
न ही इसका कोई स्थिर राज्य. | न ही इसका कोई स्थिर राज्य. |
16:54, 3 सितम्बर 2010 का अवतरण
कश्मीर होता जा रहा हूँ
मैंने जिन हथेलियों में
अपना चेहरा छिपाया,
उनसे तेज़ाब पसीज रहा था
और मेरा चेहरा
लहूलुहान होता जा रहा था
जिस पेड़ की शाख पर
अपनी कमर टिकाई,
वह जमीन से उखड़कर
जड़हीन था
जिस पत्थर पर सुस्ताने बैठा
वह हवा में कंपकंपाते हुए तैर रहा था
जिस टूटते सितारे से
उर्ध्वमुख मन्नते मांग रहा था,
उसका निशाना सीधा मेरी ओर था
चलते-चलते थक-हारकर
जिस राहगीर की बांहों की बैसाखी थामी
वे कंधों से टूटी हुई थीं
इसलिए,
इस क्षणभंगुरता के मद्देनज़र
मुझे चौकन्ना होना ही था
अगले कुछ घंटे, कुछ दिन
कुछ सप्ताह, कुछ माह
कुछ वर्ष और कुछ दशक तक,
देह-देश के दूरस्थ प्रदेशों के
दुर्गम गली कूचों में
ऊर्जा का संचार करते हुए
पर, यह क्या!
मैं तो सिर्फ खड़ा लुढ़क रहा हूँ,
किसी अपार शक्ति से
निस्तेज हुआ जा रहा हूँ,
सारी ऊर्जाएं मेरे ऊपर से बह जा रही हैं
मेरा बल मेरी पकड़ से
कश्मीर होता जा रहा है,
मैं न तो कोई राष्ट्र बन पा रहा हूँ
न ही इसका कोई स्थिर राज्य.