भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रिश्ता / लीलाधर मंडलोई" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लीलाधर मंडलोई |संग्रह=मगर एक आवाज / लीलाधर मंडलो…)
 
 
पंक्ति 16: पंक्ति 16:
 
उसके पास एक टुटही टीन पेटी थी
 
उसके पास एक टुटही टीन पेटी थी
 
जिसमें था हमारे अचरज का जगत
 
जिसमें था हमारे अचरज का जगत
वह लिानागा तीन दिन हमारे घर होता
+
वह बिलानागा तीन दिन हमारे घर होता
 
काम हो न हो उसकी आमद अचूक थी
 
काम हो न हो उसकी आमद अचूक थी
  
पंक्ति 50: पंक्ति 50:
 
हम निहन्‍नी को हाथ में लेते और
 
हम निहन्‍नी को हाथ में लेते और
 
घुमाते अंगुलियों के बीच
 
घुमाते अंगुलियों के बीच
उसके नीचे की तरफ एक उठावदार कोना था
+
उसके नीचे की तरफ़ एक उठावदार कोना था
भीतर की तरफ घूमा हुआ
+
भीतर की तरफ़ घूमा हुआ
जिससे साफ होता था कान का मैल
+
जिससे साफ़ होता था कान का मैल
 
कक्‍का बड़े जतन से उपयोग में लाते
 
कक्‍का बड़े जतन से उपयोग में लाते
 
एक गुदगुदी जो बसी है अब तक कानों में
 
एक गुदगुदी जो बसी है अब तक कानों में
पंक्ति 65: पंक्ति 65:
 
वाह क्‍या खूब
 
वाह क्‍या खूब
  
तब नियम सख्‍त था
+
तब नियम सख़्त था
या कहें रिवाज न था
+
या कहें रिवाज़ न था
 
लेकिन स्त्रि‍यां चोरी-छिपे
 
लेकिन स्त्रि‍यां चोरी-छिपे
 
नाखून कटाने की जुगत में होतीं
 
नाखून कटाने की जुगत में होतीं

21:00, 3 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण

पिता उसे प्‍यार से दमड़ू पुकारते थे
घर के लोग कक्‍का
पेशे से वह नाई था
और एक कुशल हरकारा
घरों-घर अच्‍छी-बुरी खबर पहुंचाने का
कठिन दायित्‍व उसके कंधों पर था
या कहें आत्‍मा पर

उसके पास एक टुटही टीन पेटी थी
जिसमें था हमारे अचरज का जगत
वह बिलानागा तीन दिन हमारे घर होता
काम हो न हो उसकी आमद अचूक थी

एक अजीब प्रेम में जकड़ा
बुखार में तपता बदन लिए भी वह होता
हम अपने खेल निरस्‍त कर
उसके आने का इंतजार करते
टुटही पेटी में एक शीशा था
जिसे कोई अंग्रेज दे गया था
हम उसमें देख सकते थे

एक-दो जोड़ी कैंची थीं जो चमकती थीं
एक जर्मन की कटोरी
और साबुन की गोल डिब्‍बी
एक चिकना लंबोत्‍तर पत्‍थर
जिसकी सतह पर उस्‍तरा घूमता
तो धमक नाभि में उठती
पेटी में साफ-सुथरा पापलीन का एक टुकड़ा
अलावा दो निहन्नियां जिनमें हमारी दिलचस्‍पी थी
उन्‍हें देखकर उन बर्मों की याद आती
जिन्‍हें कोयले की चट्टानों में होल करने के लि‍ए
पिता के कई दोस्‍त इस्‍तेमाल करते थे
बर्मों की तकनीक से बनी थीं निहन्नियां
ऐसा हमने देखकर जाना

कक्‍का पूरे इलाके में निहन्‍नी के हुनरमंद उस्‍ताद बजते थे
वैसे दाढ़ी बनाने में उनका जवाब न था
खदान से निकला काला धुस्‍स चेहरा
उनके हाथ पड़ते ही
कुंदन-सा चमक उठता था
स्‍त्रि‍यां चहक में जिसे पढ़ती थीं रात गए

हम निहन्‍नी को हाथ में लेते और
घुमाते अंगुलियों के बीच
उसके नीचे की तरफ़ एक उठावदार कोना था
भीतर की तरफ़ घूमा हुआ
जिससे साफ़ होता था कान का मैल
कक्‍का बड़े जतन से उपयोग में लाते
एक गुदगुदी जो बसी है अब तक कानों में

जहां तक नाखून काटने की बात है
यह छूट कक्‍का ने कभी नहीं दी
वे एक जादूगर थे
जिनके हाथों में आते ही
नाखून इस तरह उतरते कि कभी उगे नहीं
कोई छूटा सिरा या कोना ढूंढता मुश्किल
आपके हिस्‍से एक आश्‍चर्य होता
वाह क्‍या खूब

तब नियम सख़्त था
या कहें रिवाज़ न था
लेकिन स्त्रि‍यां चोरी-छिपे
नाखून कटाने की जुगत में होतीं
यह तो कक्‍का का नाम था
पाबंदी के बावजूद काट जाते नाखून
रात मर्द पूछते सिर्फ इतना
कक्‍का आये थे
चाय को पूछा कि नहीं

न अब कक्‍का हैं
न टुटही पेटी
निहन्‍नी तो किसी संग्रहालय तक में नहीं
बैठते हुए किसी भव्‍य दुकान में
सब कुछ इतना यांत्रि‍क
और नाखून काटने का कोई इंतजाम नहीं

देखता हूं नाखून तो
बस एक तीखी याद हिड़स भरी
वह जो होती तो होते कक्‍का कहीं
नेलकटरों के इस दौर में
काट तो लेता हूं लेकिन रगड़ने की मशक्‍कत
सुविधा कोई कला नहीं

गया एक हुनर काल के गर्त में
एक रिश्‍ता

बिना उसके मैं इतना नकली कि बिल्‍कुल अकेला