भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रात / मुकेश मानस" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुकेश मानस |संग्रह=काग़ज़ एक पेड़ है / मुकेश मान…)
 
(कोई अंतर नहीं)

17:35, 7 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण


बड़ी थकन है इस तन मन में
पलकें थक कर चूर हो चलीं
पर जाने कैसी उलझन है
जो मुझे नहीं सोने देती

अन्धकार गहराता है
बढ़ता जाता है सन्नाटा
रात है चुप, और मैं हूँ ग़ुम
बाहर भीतर तन्हाई है
जो मुझे नहीं रोने देती

मैं जैसे वीरान समंदर
कितना गुमसुम, कितना खाली
पर भीतर तूफान मचलता
लाख कोशिशें करता हूँ पर
नींद ना आती आँखों में

ना जाने क्यों हर धड़कन
चलती है थमी सी रहती है
हासिल हैं मुझको सब खुशियाँ
फिर भी एक कमी सी रहती है


क्यों ऐसा लगता है मुझको
कोई और है मुझपे छाया सा
कोई और ही जीता है मुझमें
मेरे भेस में मेरा साया सा
2005