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21:57, 8 सितम्बर 2010 का अवतरण
ठीक सत्र से पहले मौसम,
अध्यादेश निकाल रहा है।
क्रूर काल तानाशाह-सा
पीठें देकर परम्परा को,
किरणों की धारा-दर-धारा
फाँस रहा है वसुंधरा को;
कीचड़ भरे कुएँ प्यासों के
शासक सूर्य खँगाल रहा है।
ये चिंदी चिंदी-से बादल
खेल रहे हैं आँखमिचौनी,
छाया मँहगी हुई धूप से,
तन से चिपटी उमस घिनौनी;
फरियादी धरती का क़ातिल
यह आकाश बहाल रहा है।
निर्वृक्षी डूँगर पठार के
भ्रष्ट तांत्रिक-से अचेत हैं।
अग्नि स्वजन की देकर लौटे
पुरजन, परिजन रहे खेत हैं;
अंधे बहुमत-सा अषाढ़ ये
मद-आवेश निकाल रहा है।
ठीक सत्र से पहले मौसम,
अध्यादेश निकाल रहा है।
सूरज जैसा कामदार, पर
काम न आई किरन-बुहारू,
महामारियों की चपेट में
दिल्ली हो या गाँव लुहारू;
कैसे मानूँ अंधकार में
यह नेतृत्व मशाल रहा है!
ठीक सत्र से पहले मौसम,
अध्यादेश निकाल रहा है।