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"वह / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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वह सड़ियल पेट में  
 
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भूख-प्यास की आदत डालकर
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पैदा हुआ था
 
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अपने बाप की मार खा कर
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अपने बाप की मार खाकर
  
 
अंधी कोठरी में  
 
अंधी कोठरी में  
दुनियादारी झेलकर
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धुओं की बारहमासी बरसात में
 
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अपने पारदर्शी सहोदरों के संग  
 
अपने पारदर्शी सहोदरों के संग  
नहा-ढो, खेल-कूद कर  
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इतना सयाना हुआ था  
 
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कि वह भांप सकता था
 
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इतराते संबंधों को  
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आँक सकता था  
 
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सामाजिक समास को  
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झाँक सकता था  
 
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कौटुम्बिक ताने-बाने के बीच  
 
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ज़हरीले कुकुरमुत्तों के जंगल से  
 
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जहां समाज-पार के  
 
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चुनिन्दा नामूनेदार समाज
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चुनिन्दा नमूनेदार समाज
 
शौक से छल रहे होते हैं--
 
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भूत, भविष्य और वर्तमान  
 
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और चुग रहे होते हैं  
 
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संस्क्रितियाम, नैतिकताएं व आदर्श
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बस, यही है
 
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उसका पैंतीस बरस  
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बासी चमड़ी से ढंकी हुई  
 
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-दो सौ छ: हड्डियां
 
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जिसकी रोशनी में  
 
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वह सिर्फ गिन सकता है
 
वह सिर्फ गिन सकता है
अपनी लाइनदार करास्थियों को  
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टटोल सकता है
 
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गठिया के मीठे दर्द वाले जोड़ों को  
 
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और अपनी बपौती में मिली  
 
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बेशकीमती इकलौती कमीज़ और पाजामे पर,
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वह बता सकता है
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सैंतीस चकत्तियों से झांकते हुए सत्तासी छिद्रों को
 
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जिनमें से बेशर्मी से झांकते हुए  
 
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नोच-नोच अपनी हथेली पर  
 
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क्रम से रखता है गिनते हुए
 
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एक, दो, टीं, चार ....
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अपनी पाठशाला उसे याद है
 
अपनी पाठशाला उसे याद है
जबके बाप शराब में डूब मरा था
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माँ रसोईं की ईंधन बन जल गई थी
 
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और एक रात  
 
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तब से वह वहीं है  
 
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अपने ककहरे के साथ
 
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और भूख से नपुंसक बने  
 
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13:02, 10 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण


वह

वह सड़ियल पेट में
भूख-प्यास की आदत डालकर,
पैदा हुआ था
अपने बाप की मार खाकर

अंधी कोठरी में
दुनियादारी झेलकर,
धुओं की बारहमासी बरसात में
अपने पारदर्शी सहोदरों के संग
नहा-धो, खेल-कूद कर
इतना सयाना हुआ था
कि वह भांप सकता था
इतराते संबंधों को,
आँक सकता था
सामाजिक समास को,
झाँक सकता था
कौटुम्बिक ताने-बाने के बीच
ज़हरीले कुकुरमुत्तों के जंगल से
जहां समाज-पार के
चुनिन्दा नमूनेदार समाज
शौक से छल रहे होते हैं--
भूत, भविष्य और वर्तमान
और चुग रहे होते हैं
संस्कृतियाँ, नैतिकताएं व आदर्श

बस, यही है
उसका पैंतीस बरस,
बासी चमड़ी से ढंकी हुई
-दो सौ छ: हड्डियां
और झांकता हुआ उसका आलसी भविष्य
जिसकी रोशनी में
वह सिर्फ गिन सकता है
अपनी लाइनदार करास्थियों को,
टटोल सकता है
गठिया के मीठे दर्द वाले जोड़ों को
और अपनी बपौती में मिली
बेशकीमती इकलौती कमीज़ और पाजामे पर
वह बता सकता है--
सैंतीस चकत्तियों से झांकते हुए सत्तासी छिद्रों को
जिनमें से बेशर्मी से झांकते हुए
झुलसे रोओं को वह
नोच-नोच अपनी हथेली पर
क्रम से रखता है गिनते हुए
एक, दो, तीन, चार ....

अपनी पाठशाला उसे याद है
जबकि बाप शराब में डूब मरा था,
माँ रसोईं की ईंधन बन जल गई थी
और एक रात
जबकि दीमक-खाई छत
गिर पड़ी थी उस पर
उसे कुछ याद नहीं,
वह सारी रात पहाड़े रटता रहा
अगली सुबह
मास्टरजी को सुनाने के लिए

तब से वह वहीं है
इत्मिनान से,
अपने ककहरे के साथ
और भूख से नपुंसक बने
छीजन बचे
अपने नक्काशीदार शरीर के साथ,
टंगे दीवारों पर
पढ़ते हुए अक्षरों को
जिन्हें समय ने
मेहरबानी कर लिख डाला है
खाली समय में
खेलने के लिए.