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18:03, 10 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण
पुरवाई के ताने पछुआ के बानों से,
फिर कबीर मौसम ने बीनी
हरी चदरिया झीनी-झीनी।
धरा गगन के शून्य महल में बजती मादल,
अनगढ़ राग अलापे संतो बैहर बादल!
नामदेव की तानें, पीपा के गानों से,
फिर कबीर जुलहा ने बीनी
हरी चदरिया झीनी-झीनी।
नदी ताल, साखी दोहों से, बीजक झरने,
दसों दिशाएँ घाटों आईं पानी भरने।
राधा के बरसाने, कान्हा की तानों से,
सूरदास मौसम ने बीनी
हरी चदरिया झीनी-झीनी।
भगत निगोड़ा जात न पूछे, पाँत न पूछे,
धरम हमारे हमसे यह बरसात न पूछे!
सावन दिन सरसाने, भादों अरमानों से,
रितु रैदास समय ने बीनी
हरी चदरिया झीनी-झीनी।
मौसम को मौसम के जैसे ले न सके हम,
बाहों भर आभार नेह को दे न सके हम!
ये कोरट वो थाने, रपटें परवानों से
नागर बटमारों ने छीनी, फटी चदरिया बदरँग झीनी।
पुरवाई के ताने पछुआ के बानों से,
गो कबीर मौसम ने बीनी,
हरी चदरिया रसरँग भीनी।