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नयन मूँदकर चुप न रहो,
गत–व्याधि, समाधि लगे न कहीं।
सती - कहानी कहने की,
अन्तर से चाह भगे न कहीं॥
आकुल कुल प्रश्नों को सुनकर
मुकुलित नयनों को खोला।
वीर – करुण – रस - सिंचित स्वर से
सती – तीर्थ - यात्री बोला॥
क्या न पद्मिनी – जौहर का
आख्यान सुना प्राचीनों से?
क्या न पढ़ा इतिहास सती का
विद्या – निरत नवीनों से?
यदि न सुना तो सुनो कहानी
सती – पद्मिनी – रानी की।
पर झुक झुककर करो वन्दना,
पहले पहल भवानी की॥
रूपवान था रतन, पद्मिनी
रूपवती उसकी रानी।
दम्पति के तन की शोभा से
जगमग जगमग रजधानी॥
रानी की कोमलता पर
कोमलता ही बलिहारी थी।
छुईमुई – सी कुँभला जाती,
वह इतनी सुकुमारी थी॥
राजमहल से छत पर निकली,
हँसती शशि - किरणें आईं।
मलिन न छवि छूने से हो,
इससे विहरीं बन परछाईं॥
मलयानिल पर रहती थी,
वह कुसुम – सुरभि पर सोती थी।
जग की पलकों पर बसकर,
प्राणों से प्राण सँजोती थी॥
ऊषा की स्वर्णिम किरणों
के झूले पर झूला करती।
राजमहल के नंदन - वन में,
बेला सी फूला करती॥
बिखरे केशों में अँधियाली,
मुख पर छायी उजियाली।
राका – अमा – मिलन होता था,
भरी माँग की ले लाली॥
बालों में सिन्दूर चिह्न ही
था दो प्राणों का बंधन।
मानो घनतम तिमिर चीरकर,
हँसी उषा की एक किरन॥
बालमृगी - सी आँखों में
आकर्षण ने डेरा डाला।
सुधा - सिक्त विद्रुम - अधरों पर
मदिरा ने घेरा डाला॥
मधुर गुलाबी गालों पर,
मँडराती फिरती मधुपाली।
एक घूँट पति साथ पिया मधु,
चढ़ी गुलाबी पर लाली॥
आँखों से सरसीरुह ने
सम्मोहन जा जाकर सीखा।
रानी का मधुवर्षी स्वर
कोयल ने गा गाकर सीखा॥
घूँघट – पट हट गया लाज से,
मुसकाई जग मुसकाया।
निःश्वासों की सरस सुरभि से
फूलों में मधुरस आया॥
अरुण कमल ने जिनके तप से
इतनी सी लाली पाई।
फूलों पर चलने से जिनमें
नवनी - सी मृदुता आई॥
फैल रही थी दिग्दिगन्त में
जिनकी नख - छबि मतवाली,
उन पैरों पर सह न सकी
लाक्षारस की कृत्रिम लाली॥
नवल गुलाबों ने हँस हँसकर
सुरभि रूप में भर डाली।
कमल - कोष से उड़ उड़कर
भौंरों ने भी भाँवर डाली॥
जैसी रूपवती रानी थी,
वैसा ही था पति पाया।
मानो वासव साथ शची का
रूप धरातल पर आया॥
भरे यहीं से तंत्र – मंत्र
मनसिज ने अपने बाणों में।
पति के प्राणों में पत्नी थी,
पति पत्नी के प्राणों में॥
दो मुख थे पर एक मधुरध्वनि,
दो मन थे पर एक लगन।
दो उर थे पर एक कल्पना,
एक मगन तो अन्य मगन॥
विरह नाम से ही व्याकुलता,
जीवन भर संयोग रहा।
एक मनोहर सिंहासन पर,
सूर्य - प्रभा का योग रहा॥
रानी कहती नव वसन्त में
कोयल किसको तोल रही।
पति के साथ सदा राका यह
कुहू कुहू क्यों बोल रही?
सावन के रिमझिम में पापी
डाल – डाल पर डोला क्यों?
पी तो मेरे साथ – साथ
‘पी कहाँ’ पपीहा बोला क्यों?
त्रिभुवन के कोने कोने में,
रूप - राशि की ख्याति हुई।
रूपवती के पातिव्रत पर
गर्वित नारी – जाति हुई॥
ग्राम – ग्राम में, नगर – नगर में,
डगर – डगर में, घर - घर में
पति - पत्नी का ही बखान
मुखरित था अवनी - अम्बर में॥
सुनी अलाउद्दीन राहु ने
चन्द्रमुखी की तरुणाई।
उसे विभव का लालच देकर,
की ग्रसने की निठुराई॥
जितने अत्याचार किए
उन सबका क्या वर्णन होगा!
सुनने पर वह करुण कहानी
विकल तुम्हारा मन होगा॥
बोला वह पथिक पुजारी से,
पावन गाथा आरम्भ करो।
चाहे जो हो पर दम्पति का
मेरे अन्तर में त्याग भरो॥
दलबल लेकर खिलजी ने क्या
गढ़ पर ललकार चढ़ाई की?
क्या रावल के नरसिंहों से
रानी के लिए लड़ाई की?
उस संगर का आख्यान कहो,
तुम कहो कहानी रानी की।
समझा समझा इतिहास कहो,
तुम कहो कथा अभिमानी की॥
जप जप माला निर्भय वर्णन
जौहर का करने लगा यती।
आख्यान - सुधा अधिकारी के
अन्तर में भरते लगा यती॥
माधव-निकुंज, काशी
कार्तिकी, संवत १९९६